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ग्रन्थ में अनेकान्त की प्रौढ़-भाषा में तर्कपुष्ट-पद्धति से व्याख्या की है। प्राचार्य श्री समन्तभद्र ने 'आप्त-मीमांसा' ग्रन्थ में अनेकान्त की, जो गंभीर और गहन व्याख्या की है, वह अपने ढंग की एक अनूठी है। प्राचार्य हरिभद्र ने 'अनेकान्तवाद प्रवेश' और 'अनेकान्तजय-पताका' जैसे मूर्धन्य ग्रन्थों में अनेकान्त का तर्क-पूर्ण प्रतिपादन किया है। प्राचार्य अकंलकदेव ने अपने 'सिद्धि विनिश्चय' ग्रन्थ में अनेकान्त का, जो उज्ज्वल रूप प्रस्तुत किया है, वह अपने आप में अद्भुत है। उपाध्याय यशोविजयजी ने नव्य-न्याय की शैली में अनेकान्त, स्याद्वाद, सप्तभंगी, नयवाद पर अनेक ग्रन्थ लिखकर स्याद्वाद को सदा के लिए अजेय बना दिया है। इस प्रकार हमारे प्राचीन आचार्यों ने जिस अहिंसा और अनेकान्त को पल्लवित और विकसित किया, वह श्रमण भगवान महावीर की मल वाणी में, बीज रूप में पहले से ही सुरक्षित था। उक्त प्राचार्यों की विशेषता यही है कि उन्होंने अपने-अपने युग में अहिंसा और अनेकान्त पर तथा स्याद्वाद और सन्तभंगी पर होनेवाले आक्षेपों और प्रहारों का प्रभावशाली तर्क-संगत उत्तर दिया । यही उनकी अपनी विशेषता है।
अनेकान्त जीवन का सत्य :
आप और हम सब, अहिंसा और अनेकान्त के गीत तो बहुत गाते हैं, किन्तु क्या कभी हमने यह समझने का प्रयल किया है-हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में अहिंसा कितनी है और अनेकान्त कितना है? कोई भी सिद्धान्त पोथी के पन्नों पर कितना ही अधिक विकसित और पल्लवित क्यों न हो गया हो, किन्तु जब तक जीवन की धरती पर उसका उपयोग नहीं किया जाएगा, तब तक उससे कुछ भी लाभ नहीं। जिस प्रकार अमृत का पान किए बिना केवल अमृत के स्वरूप का प्रतिपादन करने और उसके नाम की माला जपने मात्र से जीवन में संजीवनी-शक्ति का संचार नहीं होता, उसी प्रकार अहिंसा और अनेकान्त का नाम रटने से, उसकी विशद् व्याख्या करने मात्र से जीवन में सत्य की स्फूर्ति और यथार्थ का जागरण नहीं आ सकता। वह तभी पाएगा, जबकि अहिंसा और अनेकान्त को जीवन की धरती पर उतार कर, जिन्दगी के हर मोर्चे पर उसका उपयोग और प्रयोग किया जाएगा। खेद की बात है-अनेकान्तवादी कहलानेवाले जैन भी अपनेअपने साम्प्रदायिक एकान्त को पकड़ कर बैठ गए है। श्वेताम्बर और दिगम्बरों के संघर्ष, स्थानकवासी और तेरापंथियों के झगड़े. इस तथ्य को ही प्रमाणित करते हैं, कि ये लोग केवल अनेकान्तवाद की कोरी बात भर ही करते हैं, किन्तु इनके जीवन में अनेकान्त है नहीं । सिद्धसेन दिवाकर ने और समन्तभद्र ने अपने-अपने यग में जिस अनेकान्तवाद के आधार पर विभिन्न दार्शनिक सम्प्रदायों का समन्वय किया था, आश्चर्य है, उसी परम्परा के अनुयायी अपना समाधान नहीं कर सके। इससे अधिक विडम्बना अनेकान्त की और क्या होगी? श्वेताम्बरों का दावा है कि समग्र सत्य हमारे पास है और इसके विपरीत दिगम्बरों का दावा है कि समस्त तथ्य हमारे ही पास है। परन्तु मैं इसे एकान्तवाद कहता हूँ। एकान्तवाद, फिर भले ही वह अपना हो, या पराया हो, वह कभी अनेकान्त नहीं बन सकता। सम्प्रदायवाद और पंथवाद का पोषण करनेवाले व्यक्ति जब अनेकान्त की चर्चा करते हैं, तब मुझे बड़ी हँसी आती है। मैं सोचा करता हूँ कि इन लोगों का अनेकान्तवाद केवल पोथी के पन्नों का अनेकान्तवाद है, वह जीवन का जीवन्त अनेकान्त नहीं है। आज हमें उस अहिंसा और उस अनेकान्त की आवश्यकता है, जो हमारे जीवन के कालुष्य और मालिन्य को दूर करके, हमारे जीवन को उज्ज्वल और पवित्र बना सके, तथा जो हमारे इस वर्तमान जीवन को सरस, सुन्दर और मधुर बना सके एवं समन्वय की भावना हमारे रग-रग में भर सके
अनेकान्त, जैन-दर्शन का प्राण :
अनेकान्तवाद जैन-दर्शन की आधारशिला है। जन-तत्त्वज्ञान का महल, इसी अनेकान्तवाद के सिद्धान्त की आधारशिला पर अवलम्बित है। वास्तव में अनेकान्तवाद
पन्ना समिक्खए धम्म
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