________________
विश्वतोमुखी मंगलदीप : अनेकान्त अनेकान्त क्या है ? वस्तुतः विचारात्मक अहिंसा हो अनेकान्त है। बौद्धिक अहिंसा ही, अनेकान्त है। और, अनेकान्त-दृष्टि को जिस भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है, वही स्याद्वाद है। अनेकान्त-दृष्टि है, और स्याद्वाद उस दृष्टि की अभिव्यक्ति की पद्धति है। विचार के क्षेत्र में अनेकान्त इतना व्यापक है कि विश्व के समग्र दर्शनों का इसमें समावेश हो जाता है। क्योंकि जितने वचन-व्यवहार हैं, उतने ही नय हैं। सम्यकनयों का समूह ही वस्तुतः अनेकान्त है। अनेकान्त का अर्थ यह है कि जिसमें किसी एक अन्त का, धर्म-विशेष का, अर्थात् एक पक्ष विशेष का आग्रह न हो। सामान्य भाषा में विचारों के अनाग्रह को ही वास्तव में अनेकान्त कहा जाता है। धर्म, दर्शन और संस्कृति प्रत्येक क्षेत्र में अनेकान्त सिद्धान्त का साम्राज्य है। जीवन और जगत् के जितने भी व्यवहार हैं, वे सब अनेकान्तमूलक ही हैं। अनेकान्त के बिना जीवन-जगत् का व्यवहार नहीं चल सकता। जीवन के प्रत्येक पहल को समझने के लिए अनेकान्त की आवश्यकता है। जैनधर्म समभाव की साधना का धर्म है। समभाव, समता, समदृष्टि और साम्यभावनाये सब जैन-धर्म के मूल तत्त्व हैं। श्रम, शम और सम-ये तीन तत्त्व जैन-विचार के मूल आधार हैं। विचार की समता पर जब भार दिया गया, तब उसमें से अनेकान्त दृष्टि का जन्म हुआ। केवल अपनी दृष्टि को, अपने विचार को ही पूर्ण सत्य मान कर उस पर आग्रह रखना, यह समता के लिए घातक भावना है। साम्य-भावना ही अनेकान्त है। अनेकान्त एक दष्टि है, एक दष्टिकोण है. एक भावना है. एक विचार है और है सोचने और समझने की एक निष्पक्ष पद्धति । जब अनेकान्त वाणी का रूप लेता है, भाषा का रूप लेता है, तब वह स्याद्वाद बन जाता है, और जब वह प्राचार का रूप लेता है, तब वह अहिंसा बन जाता है। अनेकान्त और स्याद्वाद में सबसे बड़ा अन्तर यह है कि अनेकान्त विचार-प्रधान होता है और स्यावाद भाषा-प्रधान होता है। अतः दृष्टि जब तक विचार रूप है, तब तक वह अनेकान्त है, दृष्टि जब वाणी का परिधान पहन लेती है, तब वह स्याद्वाद बन जाती है। दृष्टि जब माचार का रूप ले लेती है, तब वह अहिंसा बन जाती है।
जैनाचार्य और अनेकान्त :
इस प्रकार उक्त विश्लेषण पर से यह सिद्ध होता है---अहिंसा और अनेकान्त दोनों एक-दूसरे के पूरक है। प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर, जो विक्रम की पाँचवीं शती के लगभग भारत के एक महान दार्शनिक थे। उन्होंने अपने 'सन्मति-तर्क' ग्रन्थ में अनेकान्त को विश्व का गुरु कहा है। प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर का कहना है----"इस अनेकान्त के बिना और तो क्या, लोक-व्यवहार भी चल नहीं सकता। मैं उस अनेकान्त को नमस्कार करता हूँ, जो जन-जन के जीवन को आलोकित करनेवाला गुरू है।" अनेकान्त केवल तर्क का सिद्धान्त ही नहीं है, वह एक अनुभव-मूलक सिद्धान्त है। प्राचार्य हरिभद्र ने अनेकान्त के सम्बन्ध में कहा है--"कदाग्रही व्यक्ति की, जिस विषय में उसकी अपनी मति होती है, उसी विषय में वह अपनी युक्ति (तर्क) लगाता है। पर, एक निष्पक्ष व्यक्ति की युक्ति सत्याभिमुख ही होती है।" अनेकान्त के व्याख्याकार आचार्यों में सिद्धसेन ने अपने 'सन्मति-तर्क'
विश्वतोमुखी मंगलदीप : अनेकान्त
६७
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org