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भोलापन और एक सुकुमारता का भाव छिपा है, जो मानव-मन की सहज धारा है । इसलिए चाहे वैदिक परम्परा है, बौद्ध परम्परा है, या जैन परम्परा - सर्वत्र भक्ति योग का प्रवाह उमड़ा, साधक उसकी धारा में बहे और काफी दूर तक बह गये । स्तोत्र, पाठ और प्रार्थनाएँ रची गईं, विनतियाँ गाई गई और इसके माध्यम से साधक भगवान् का प्रांचल पकड़कर चलने का आदी रहा ।
जब तक साधक को अपने अस्तित्व का सही बोध प्राप्त नहीं हो जाता, जब तक वह यह नहीं समझ लेता है कि भगवान् का बिम्ब ही भक्त में परिलक्षित हो रहा है । जो उसमें है, वह मुझ में है, यह अनुभूति (जिसे सखाभाव कहते हैं) जब तक जागृत नहीं हो जाती, तब तक उसे भगवान् के सहारे की अपेक्षा रहती है। भक्ति के आलम्बन की आवश्यकता होती है । निराशा और कुण्ठा उसके कोमल मन को दबोच न ले, इसके लिए भगवान् की शरण भी अपेक्षित रहती है। हाँ, यह शरण उसे भय से भागना सिखाती है, मुकाबला करना नहीं, कष्ट से बचना सिखाती है, लड़ने की क्षमता नहीं जगा सकती ।
साधना का यौवन : कर्म-योग :
युवा अवस्था जीवन की दूसरी अवस्था है । जब बचपन का भोलापन समझ में बदलने लगता है, सुकुमारता शौर्य में प्रस्फुरित होने लगती है, माँ का प्रांचल पकड़े रहने की वृत्ति सीना तानकर खड़ा होने में परिवर्तित होने लगती है, तो हम कहते ह बच्चा जवान हो रहा है। अगर कोई नौजवान होकर भी माँ को पुकारे कि "माँ सहारा दे, मेरी अँगुली पकड़ कर चला, नहीं तो मैं गिर जाऊँगा । कुत्ता प्रा गया, इसे भगा दे, मक्खियाँ मुंह पर बैठ रही हैं, उड़ा दे । गंदा हो गया हूँ, साफ कर दे, मुंह में ग्रास देकर खिलादे"तो कोई क्या कहेगा ? अरे! यह कैसा जवान है, अभी बचपन की प्रादतें नहीं बदलीं । और माँ-बाप भी क्या ऐसे युवा पुत्र पर प्रसन्नता और गर्व अनुभव कर सकते हैं? उन्हें चिन्ता होती है, बात क्या है ? डाक्टर को दिखाओ ! यह अभी तक ऐसा क्यों करता है ?
तात्पर्य यह है कि यौवन वह है, जो श्रात्म-निर्भरता से पूर्ण हो । जवानी दूसरों का मुंह नहीं ताकती। उसमें स्वावलम्बन की वृत्ति उभरती है, अपनी समझ और अपना साहस होता है । वह भय और कष्ट की घड़ी में भागकर माँ के आंचल में नहीं छुपता, बल्कि सीना तानकर मुकाबला करता है । वह दूसरों के सहारे पर भरोसा नहीं करता, अपनी शक्ति, स्फूर्ति और उत्साह पर विश्वास करके चलता है।
साधना क्षेत्र में जीवन की यह युवा अवस्था 'कर्म-योग' कहलाती है । बचपन जब तक है, तब तक किसी का सहारा ताकना ठीक है, पर जब युवा रक्त हमारी नसों में दौड़ने लगता है, तब भी यदि हम अपना मुंह साफ करने के लिए किसी और को पुकारें, तो यह बात युवा - रक्त को शोभा नहीं देती ।
कर्म-योग हमारी युवाशक्ति है। अपना मुंह अपने हाथ से धोने की बात -- -कर्मयोग की बात है । कर्मयोग की प्रेरणा है - "तुझे जो कुछ करना है, अपने आप कर ! अपने भाग्य का विधाता तू खुद है। जीवन में जो पीड़ाएँ और यातनाएँ तुझे कचोटने आती हैं, वे किसी और की भेजी हुई नहीं हैं । तेरी भूलों ने ही उन्हें निमन्त्रित किया है, अब उनसे भाग भत । उनका स्वागत कर ! मुकाबला कर ! भूल को अनुकूल बनाना, शूल को फूल बनाना — इसी में तो तेरा चमत्कार है । जीवन की गाड़ी को मोड़ देना, उसके चक्के बदल देना, यह सब तेरे अधिकार में हैं । तू अपनी गाड़ी का प्रभुसत्ता सम्पन्न मालिक होकर भी साधारण से क्रीतदास की तरह खड़ा देख रहा है, यह ठीक नहीं ।" इस प्रकार कर्म योग मन में श्रात्म-निर्भरता का साहस - भाव जगाता है । अपना दायित्व अपने ऊपर लेने की आत्मिक शौर्य-वृत्ति को प्रोत्साहन देता है ।
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पन्ना समिक्ख धम्मं
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