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और अशुभ कर्म 1:3
जैन दर्शन के अनुसार कर्म-वर्गणा के पुद्गल परमाणु लोक में सर्व भरे हैं। उनमें शुभत्व और अशुभत्व का भेद नहीं है, फिर कर्म पुदगल परमाणुयों में शुभत्व एवं अशुभत्व का भेद कैसे पैदा हो जाता है ? इसका उत्तर यह है -- जीव अपने शुभ और अशुभ परिणामों के अनुसार कर्म-वर्गणा के दलिकों को शुभ एवं प्रशुभ में परिणत स्वरूप को ही ग्रहण करता है । इस प्रकार जीव के परिणाम एवं विचार ही, कर्मों की शुभता एवं प्रशुभता के कारण हैं । इसका अर्थ यह है कि कर्म-पुद्गल स्वयं अपने आप में शुभ और अशुभ नहीं होता, बल्कि जीव का परिणाम ही उसे शुभ एवं अशुभ बनाता है। दूसरा कारण है, ग्राश्रय का स्वभाव | कर्म के श्राश्रयभूत बद्ध संसारी जीव का भी यह वैभाविक स्वभाव है कि वह कर्मों को शुभ एवं शुभ रूप में परिणत करके ही ग्रहण करता है। इसी प्रकार कर्मों में भी कुछ ऐसी योग्यता रहती है कि वे शुभ एवं अशुभ परिणाम सहित जीव द्वारा ग्रहण किए जाकर ही, शुभ एवं शुभ रूप में परिणत होते रहते हैं, बदलते रहते हैं एवं परिवर्तित होते रहते हैं । पुद्गल की शुभ से प्रशुभ रूप में और अशुभ से शुभ रूप में परिगति का क्रम सदा चलता रहता है ।
प्रकृति, स्थिति और अनुभाग की विचित्रता तथा प्रदेशों के अल्प-बहुत्व का भी भेद जीव कर्म-ग्रहण के समय ही करता है। इस तथ्य को समझने के लिए आहार का एक दृष्टान्त यहाँ उपस्थित है । सर्प और गाय को प्रायः एक जैसा ही भोजन एवं प्राहार दिया जाए, किन्तु उन दोनों की परिणति विभिन्न प्रकार की होती है । कल्पना कीजिए, सर्प और गाय को एक साथ और एक जैसा दूध पीने के लिए दिया गया, वह दूध सर्प के शरीर में विष रूप में परिणत हो जाता है और गाय के शरीर में दूध, दूध रूप में ही परिणत होता है। ऐसा क्यों होता है ? इस प्रश्न का समाधान स्वतः स्पष्ट है कि आहार का यह स्वभाव है कि वह अपने
शुभ
श्रय के अनुसार ही परिणत होता है। एक ही समय पड़ी वर्षा की बूँदों का प्राश्रय के भेद से, भिन्न-भिन्न परिणाम देखा जाता है। जैसे कि स्वाति नक्षत्र में गिरी बूँदें सीप के मुख में जाकर मोती बन जाती हैं और सर्प के मुख में विष । यह तो हुई भिन्न-भिन्न शरीरों में प्राहार की विचित्रता की बात, किन्तु एक शरीर में भी एक जैसे प्रहार के द्वारा प्राप्त भिन्न-भिन्न परिणामों की विचित्रता देखी जा सकती हैं। शरीर द्वारा ग्रहण किया हुआ एक ही आहार अस्थि मज्जा, रक्त, वीर्य एवं मल-मूत्र आदि के अच्छे-बुरे विविध रूपों में परिणत होता रहता है। इसी प्रकार कर्म भी जीव के शुभाशुभ भावानुरूप ग्रहण किए जाने पर शुभ एवं शुभ रूप में परिणत होते रहते हैं । एक ही कार्माण पुद्गल वर्गणा में विभिन्नता का हो जाना सिद्धान्त बाधित नहीं कहा जा सकता ।
जीव का कर्म से अनादि सम्बन्ध : श्रात्मा चेतन है और कर्म जड़ है। फिर यहाँ प्रश्न यह उठता है--चेतन आत्मा का जड़-कर्म के साथ सम्बन्ध कब से है ? इसके समाधान में यह कहा जा सकता है --कर्म-सन्तति आत्मा के साथ अनादि काल से संबंध है । यह नहीं बताया जा सकता कि जीव से कर्म का सर्व प्रथम संबंध कब और कैसे हुआ ? शास्त्र में कहा गया है कि जीव सदा क्रियाशील रहता है । वह प्रतिक्षण मन, वचन और काय से एकताबद्ध हो विभिन्न व्यापारों में प्रवृत्त रहता है । अतः वह हर समय कर्म-बंध करता ही रहता है। इस प्रकार किसी अमुक कर्म विशेष की दृष्टि से आत्मा के साथ कर्म का संबंध सादि ही कहा जा सकता है । परन्तु, कर्मसन्तति के सतत प्रवाह की अपेक्षा से जीव के साथ कर्म का सम्बन्ध अनादि काल से चला श्रा रहा है । प्रतिक्षण पुराने कर्म क्षय होते रहते हैं और नये कर्म बंधते रहते हैं ।
यदि कर्म-सन्तति को किसी एक दिन प्रारम्भ होनेवाली सादि मान लिया जाए, तो फिर जीव कर्म सम्बन्ध से पूर्व सिद्ध, बुद्ध, मुक्त दशा में रहा है। यदि शुद्ध और मुक्त रहा है, तो फिर वह कर्म से लिप्त कैसे हो गया ? यदि अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित जीव भी कर्म से लिप्त हो सकता है, तो सिद्ध और मुक्त श्रात्मा भी पुनः कर्म से लिप्त क्यों नहीं हो जाती ?
पन्ना समिक्ख धम्मं
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