________________
उपलब्धि भी सम्भव नहीं है। मोक्ष प्राप्त करने के लिए संवर एवं निर्जरा की साधना आवश्यक है, इसके विना प्रात्मा को स्व-स्वरूप की उपलब्धि नहीं हो सकती।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि सप्त तत्त्वों में अथवा नव पदार्थों में जीव ही प्रधान है। जीव के अतिरिक्त अन्य जितने भी पदार्थ एवं तत्त्व हैं, वे सब किसी न किसी रूप में जीव से ही सम्बन्धित हैं। जीव की सत्ता से ही आस्रव और बन्ध की सत्ता रहती है और जीव के आधार पर ही संवर एवं निर्जरा की सत्ता रहती है। मोक्ष भी क्या है ? जीव की ही एक सर्वथा शुद्ध अवस्था-विशेष ही तो मोक्ष है। इस दृष्टि से विचार करने पर फलितार्थ यही निकलता है कि जीव की प्रधानता ही सर्वत्र लक्षित है। समग्र अध्यात्मविद्या का आधार यह जीव ही है, अतः जीव के स्वरूप को समझने की ही सबसे बड़ी प्रावश्यकता है। जीव के स्वरूप का परिज्ञान हो जाने पर और यह निश्चय हो जाने पर, कि मैं पुद्गल से भिन्न चेतन तत्त्व हूँ, फिर आत्मा में किसी प्रकार का मिथ्यात्व और अज्ञान का अन्धकार शेष नहीं रह जाता। अज्ञान और मिथ्यात्व का अन्धकार तभी तक रहता है, जब तक 'पर' में स्वबुद्धि और 'स्व' में पर-बुद्धि रहती है। स्व में पर-बुद्धि और पर में स्व-बुद्धि का रहना ही बन्धन है। स्व में स्व-बुद्धि का रहना ही वस्तुतः भेद-विज्ञान है। जब स्व में स्व-बुद्धि हो गई, तब पर में पर-बुद्धि तो अपने आप ही हो जाती है, उसके लिए किसी प्रकार के प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं रहती। प्रयत्न की आवश्यकता केवल निज-स्वरूप को समझने के लिए है। जिसने निज-स्वरूप को समझ लिया, उसे फिर अन्य किसी बात की अपेक्षा नहीं रहती।।
____संसार एक बाजार है। आप जानते हैं कि बाजार में हजारों दुकानें होती हैं, जिनमें नाना प्रकार की सामग्री भरी रहती है। बाजार में अच्छी चीज भी मिल सकती है और बुरी-से-बुरी चीज भी मिलती है। बाजार में कम कीमत की चीज भी मिल सकती है
और अधिक मूल्य की वस्तु भी बाजार में उपलब्ध हो सकती है। यह खरीदने वाले की भावना पर है कि वह क्या खरीदता है और क्या नहीं खरीदता है ? यदि कोई व्यक्ति वस्तु खरीद लेता है, तो वह उसे लेनी होगी, और उसकी कीमत चुकानी होगी। यदि कोई बाजार में से तटस्थ दर्शक के रूप में गुजरता है, कुछ भी नहीं खरीदता है, तो उसे बाजार की किसी वस्त को लेने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है, और न मल्य चकाने के लिए ही कोई दबाव डाला जा सकता है। संसार के बाजार में भी सभी कुछ है। यहाँ विष भी है और अमृत भी, अर्थात् शुभ भी है, अशुभ भी है। सुख भी है और दुःख भी है। स्वर्ग भी है और नरक भी है। यदि आपकी दृष्टि कुछ भी पाने की नहीं है, मात्र तटस्थ दर्शक ही ह आप, तब तो किसी वस्तु को लेने की बाध्यता नहीं है आपको। स्पष्ट है, बाजार की वस्तु उसी से चिपकती है, जो उसे खरीदता है। जो व्यक्ति कुछ खरीदता ही नहीं, उस के साथ कोई भी वस्तु उसकी इच्छा के विरुद्ध चिपक नहीं सकती। यदि आप संसार रूपी बाजार की यात्रा खरीददार बनकर कर रहे हैं, संसार की वस्तुओं के साथ रागात्मक या द्वेषात्मक भाव रख रहे हैं, तो तन्निमित्तक कर्म आपके साथ अवश्य चिपक जाएगा। इसके विपरीत यदि आप संसार रूप बाजार की यात्रा केवल एक दर्शक के रूप में कर रहे हैं, राग-द्वेष का भाव नहीं रख रहे हैं, तो एक भी कर्म आपके साथ सम्बद्ध न हो सकेगा। इसीलिए मैं कहता हूँ कि आप संसार के बाजार की यात्रा एक दर्शक के रूप में कीजिए, खरीददार बनकर नहीं। यदि एक बार भी कहीं कुछ खरीदा, राग-द्वेष का भाव किया, तो फिर वही समस्या खड़ी हो जाएगी। राग और द्वेष के वशीभूत होकर ही यह आत्मा अच्छे एवं बुरे कर्मों को प्राप्त करती है, जिसका सुख-दुःखात्मक फल उसे भोगना ही पड़ता है।
अध्यात्म-साधना में सफलता प्राप्त करने के लिए, राग और द्वेष के विकल्पों को जीतने की आवश्यकता है। जब तक जीवन में अनासक्ति का भाव और वीतरागता का भाव नहीं पाएगा, तब तक जीवन का कल्याण नहीं हो सकेगा। वीतरागता की वह कला प्राप्त करो, जो ऐसी अद्भुत है, कि संसार-सागर में गोता लगाने पर भी, उसकी एक भी
पन्ना समिक्खए धम्म
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org