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अवतारवाद या उत्तारवाद
ब्राह्मण-संस्कृति अवतारवाद में विश्वास करती है, परंतु श्रमण-संस्कृति इस तरह का विश्वास नहीं रखती । श्रमण संस्कृति का आदिकाल से यही आदर्श रहा है कि इस संसार को बनाने- बिगाड़ने वाली शक्ति ईश्वर या अन्य किसी नाम की कोई भी सर्वोपरि शक्ति नहीं है । अतः जबकि लोक-प्रकल्पित सर्वसताधारी ईश्वर ही कोई नहीं है, तब उसके अवतार लेने की बात को तो अवकाश ही कहाँ रहता है ? यदि कोई ईश्वर हो भी, तो वह सर्वज्ञ, शक्तिमान क्यों ती उतर कर आए ? क्यों मत्स्य, वराह एवं मनुष्य आदि का रूप ले ? क्या वह जहाँ है, वहाँ से ही पती अनन्त शक्ति के प्रभाव से भूमि का भार हरण नहीं कर सकता ?
अवतारवाद बनाम दास्य-भावना
अवतारवाद के मूल में एक प्रकार से मानव मन की हीन भावना ही काम कर रही है । वह यह कि मनुष्य आखिर मनुष्य ही है । वह कैसे इतने महान कार्य कर सकता हैं ? अतः संसार में जितने भी विश्वोपकारी महान् पुरुष हुए हैं, वे वस्तुतः मनुष्य नहीं थे, ईश्वर थे और ईश्वर के प्रवतार थे। ईश्वर थे, तभी तो इतने महान् प्राश्चर्यजनक कार्य कर गए। अन्यथा, बेचारा आदमी यह सब कुछ कैसे कर सकता था ?
अवतारवाद का भावार्थ ही यह है--नीचे उतरो हीनता का अनुभव करो। अपने को पंगु, बेबस लाचार समझो। जब भी कभी महान् कार्य करने का प्रसंग आए, देश या धर्म पर घिरे हुए संकट एवं अत्याचार के बादलों को विध्वंस करने का अवसर प्राए, तो बस ईश्वर के प्रवतार लेने का इन्तजार करो, सब प्रकार से दीन-हीन एवं पंगु मनोवृत्ति से ईश्वर के चरणों में शीघ्र से शीघ्र अवतार लेने के लिए पुकार करो। वही संकटहारी है, अतः वही कुछ परिवर्तन ला सकता है |
वाद कहता है कि देखना, तुम कहीं कुछ कर न बैठना । तुम मनुष्य हो, पामर हो, तुम्हारे करने से कुछ नहीं होगा। ईश्वर का काम, भला दो हाथ वाला हाड़-मांस का पिंजर क्षुद्र मनुष्य कैसे कर सकता है ? ईश्वर की बराबरी करना नास्तिकता है, परले सिरे की मूर्खता है। इस प्रकार अवतारवाद अपने मूलरूप में दास्य भावना का पृष्ठ पोषक है । तारवाद की मान्यता पर खड़ी की गई संस्कृति मनुष्य की श्रेष्ठता एवं पवित्रता में विश्वास नहीं रखती । उसकी मूल भाषा में मनुष्य एक द्विपद जन्तु के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । मनुष्य का अपना भविष्य उसके अपने हाथ में नहीं है, वह एकमात्र जगन्नियंता ईश्वर के हाथ में है । वह, जो चाहे कर सकता है। मनुष्य उसके हाथ की कठपुतली मात्र है। पुराणों की भाषा में वह 'कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुम्' के रूप में सर्वतंत्र स्वतंत्र है, विश्व का सर्वाधिकारी सम्राट् है । गीता में कहा गया है "भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया " १ वह सब जगत् को अपनी माया से घुमा रहा है, जैसे कुम्हार चाक पर रखे मृत्पिंड को, सूत्रधार जैसे काष्ठ की पुतलियों को घुमाता है ।
मनुष्य कितनी ही ऊँची साधना करे, कितना ही सत्य तथा अहिंसा के ऊँचे शिखरों पर
१. श्रीमद् भगवद्गीता, १८६१.
अवतारवाद या उत्तारवाद
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