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मुक्ति का एकमात्र साधन कर्म है। मैं विचार करता हूँ कि एक ही साध्य को प्राप्त करने .. के लिए, उसके साधन के रूप में किसी ने ज्ञान पर बल दिया, किसी ने भक्ति पर बल दिया
और किसी ने कर्म पर बल दिया। संसार में जितने भी साधना के मार्ग हैं, क्रिया-कलाप हैं अथवा क्रिया-काण्ड हैं, वे सब साधना के अलंकार तो हो सकते हैं, किन्तु उसकी मूल अात्मा नहीं। यहाँ मेरा उद्देश्य किसी भी पंथ का विरोध करना नहीं है, बल्कि मेरे कहने का तात्पर्य केवल इतना ही है कि जो कुछ भी किया जाए, सोच-समझ कर किया जाए। प्रत्येक साधक की रुचि अलग-अलग होती है, कोई दान करता है, कोई तप करता है और कोई सेवा करता है। दान, तप और सेवा तीनों धर्म है, किन्तु कब ? जबकि विवेक का दीपक घट में प्रकट हो गया हो। इसी प्रकार कोई सत्य की साधना करता है, कोई अहिंसा की साधना करता है और कोई ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह की साधना करता है। किसी भी प्रकार की साधना की जाए, कोई आपत्ति की बात नहीं है, परन्तु ध्यान इतना ही रहना चाहिए कि वह साधना विवेक के प्रकाश में चलती रहे। बाहर में अलग-अलग राह पर चलना भी कोई पाप नहीं है। यदि प्रात्मा के मूलस्वरूप की दृष्टि को पकड़ लिया है, तो जिस व्यक्ति के हृदय में विवेक के दीपक का प्रकाश जगमगा उठा है, वह जो भी साधना करता है, वह उसी में एकरूपता, एकरसता और समरसता प्राप्त कर लेता है। जीवन में आत्मलक्षी समरस-भाव की उपलब्धि होना ही, वस्तुतः सम्यक्-दर्शन है।
__ अध्यात्म-साधना के क्षेत्र में विशुद्ध ज्ञान का बड़ा ही महत्त्व है। भारत के अध्यात्मवादी-दर्शनों में इस विषय में किसी प्रकार का विवाद नहीं है कि ज्ञान भी मुक्ति का एक साधन है। वेदान्त और सांख्य एकमाल तत्त्व-ज्ञान अथवा आत्म-ज्ञान को ही मुक्ति का साधन स्वीकार करते है। इसके अतिरिक्त कुछ दर्शन केवल भक्ति को ही, मक्ति का सोपान मानते हैं और कुछ केवल क्रिया-काण्ड एवं कर्म को ही मुक्ति का कारण मानते हैं। जैन-दर्शन का कथन है कि तीनों का समन्वय ही, मुक्ति का साधन हो सकता है। इसमें किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं है कि अज्ञान और वासना के सघन जंगल को जलाकर भस्म करने वाला दावानल ज्ञान ही है। ज्ञान का अर्थ यहाँ पर किसी पुस्तक या पोथी का ज्ञान नहीं है, बल्कि अपने स्वरूप का ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है । “मैं आत्मा हूँ" यह सम्यक्-ज्ञान जिसे हो गया, उसे फिर अन्य किसी ज्ञान की आवश्यकता नहीं रहती। परन्तु, यह स्वरूप का ज्ञान भी तभी सम्भव है, जबकि उससे पहले सम्यक्-दर्शन हो चुका हो। क्योंकि सम्यक्दर्शन के बिना शुद्ध जिनत्व-भाव का एक अंश भी प्राप्त नहीं हो सकता। यदि सम्यक्-दर्शन की एक किरण भी जीवन-क्षितिज पर चमक जाती है, तो गहन से गहन गर्त में पतित आत्मा का भी उद्धार होने में कोई सन्देह नहीं है। सम्यक्-दर्शन की उस किरण का प्रकाश भले कितना ही मन्द क्यों न हो, परन्तु उसमें प्रात्मा को परमात्मा बनाने की शक्ति होती है। याद रखिए, उस निरंजन, निर्विकार, शुद्ध, बुद्ध, परमात्मा को खोजने के लिए कहीं बाहर भटकने की आवश्यकता नहीं है, वह आपके अन्दर में ही है। जिस प्रकार घनघोर घटानों के बीच, बिजली की क्षीण रेखा के चमक जाने पर क्षणमात्र के लिए सर्वत्र प्रकाश फैल जाता है, उसी प्रकार एक क्षण के लिए भी सम्यक्-दर्शन की ज्योति के प्रकट हो जाने पर कभी न कभी आत्मा का उद्धार अवश्य ही हो जाएगा। बिजली की चमक में सब-कुछ दृष्टिगत हो जाता है, भले ही वह कुछ क्षण के लिए ही क्यों न हो। इसी प्रकार यदि परमार्थ तत्त्व के प्रकाश की एक किरण भी अन्तर्हदय में चमक जाती है, तो फिर भले ही वह कितनी ही क्षीण तथा क्षणिक क्यों न हो, उसके प्रकाश में प्राप्त ज्ञान सम्यक् ज्ञान हो जाता है। इस प्रकार ज्ञान को, सम्यक्-ज्ञान का रूप देनेवाला तत्त्व-दृष्टि रूप तत्त्व-बोध सम्यक्-दर्शन ही है। यह सम्यक्-दर्शन जीवन का मूलभूत तत्त्व है।
तत्त्वों में अर्थात् पदार्थों में सबसे पहला जीव है। जीव, चेतन, श्रात्मा आदि सब पर्यायवाची शब्द है। इस अनन्त विश्व में सबसे महत्त्वपूर्ण यदि कोई तत्त्व है, तो वह अात्मा ही है । 'मैं' की सत्ता का सच्चा विश्वास और सच्चा बोध, यही अध्यात्म-साधना का चरम
बंध-पमोक्खो तुझ प्रज्मत्येव
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