Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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२ : बन्धक - प्ररूपणा अधिकार
प्रथम अधिकार - योगोपयोगमार्गणा अधिकार में जीवों का योग, उपयोग आदि की अपेक्षा विस्तार से वर्णन किया है । वहाँ जिन जीवों का वर्णन किया गया है, वे ही कर्म के बन्धक -बंध करने वाले हैं। अतः अब उन्हीं जीवों का सविस्तार विशेष वर्णन करते हैं
चउदसविहा वि जीवा विबंधगा तेसिमंतिमो भेओ । चोद्दसहा सच्चे वि हु किमाइसंताइपयनेया ॥ | १ ||
शब्दार्थ - चउदसविहा - चौदह प्रकार के, वि-ही, जीवा— जीव, विबन्धगा - बंधक, तेसि उनमें, अंतिमो अंतिम, भेओ-भेद, चोहसहा चौदह प्रकार का, सव्वे - सब, वि- भी, हु- निश्चय से, किमाइ - किम्, क्या आदि, संताइ — सत् आदि पय-पद, नेया - जानने योग्य हैं ।
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गाथार्थ - चौदह प्रकार के जीव कर्म के बन्धक हैं, उनमें से अंतिम भेद चौदह प्रकार का है । ये सभी जीवभेद किम् आदि, सत् आदि पदों द्वारा जानने योग्य हैं ।
विशेषार्थ - गाथा में जो जीव कर्म के बन्धक हैं, उनके वर्णन की प्रतिज्ञा की है ।
जिनके स्वरूप और भेद पहले बताये जा चुके हैं ऐसे अपर्याप्त, पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय आदि चौदह प्रकार के जीव कर्मों -- ज्ञानावरण आदि आठों प्रकार के कर्मों के बन्धक हैं— 'चउदसविहावि जीव विबन्धगा'। उन चौदह प्रकार के जोवों में से भी अन्तिम भेद - संज्ञो पंचेन्द्रिय पर्याप्तक भेद - मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों के भेद से चौदह प्रकार का है ( तेसिमंतिमो भेओ चोद्दसहा) तथा ये पूर्वोक्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि चौदह प्रकार के जीव एव गुणस्थानों के भेद से वर्गीकृत मिथ्यादृष्टि आदि जीव किम् आदि तथा सत्पद
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