Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधक - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४६
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पर्याप्त जलकाय एकेन्द्रिय आदि, इस प्रकार एक-एक की अपेक्षा विचार करें तो उनकी कायस्थिति इस प्रकार है
कोई जीव बारम्बार पर्याप्त बादर पृथ्वीकाय हो तो उस रूप में उत्पन्न होते हुए पर्याप्त बादर पृथ्वीकाय की कायस्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से संख्यात वर्षसहस्र की है। इसी प्रकार बादर पर्याप्त जलकाय, बादर पर्याप्त वायुकाय और पर्याप्त प्रत्येक वनस्पतिकाय की भी स्व-कार्यस्थिति जानना चाहिए तथा बादर पर्याप्त तेजस्काय की जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से संख्यात रात्रि दिन की जानना चाहिये ।
विकलेन्द्रियों - द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रियों में से प्रत्येक की काय स्थिति का काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से संख्यात हजार वर्ष है । इस प्रकार सामान्य विकलेन्द्रियों की स्व-काय स्थिति का काल समझना चाहिये, किन्तु पर्याप्त द्वीन्द्रिय आदि का पृथक्-पृथक् विचार करें तो उनका कार्यस्थिति काल इस प्रकार जाना चाहिए कि बारबार पर्याप्त द्वीन्द्रिय रूप से उत्पन्न होने वाले पर्याप्त द्वीन्द्रिय की कायस्थिति का काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से संख्यात वर्ष का है । पर्याप्त त्रीन्द्रिय का जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से संख्यात रात्रि दिन का है और पर्याप्त चतुरिन्द्रिय का जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से संख्यात मास का है ।
सूक्ष्म एकेन्द्रिय से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय तक के सभी सातों अपर्याप्तकों का कायस्थिति काल जघन्य और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त है तथा सामान्य से सूक्ष्म पृथ्वीकायादि, साधारण - पर्याप्त अपर्याप्त सूक्ष्म निगोद और पर्याप्त अपर्याप्त बादर निगोद, इनमें से प्रत्येक भेद का कायस्थिति काल जघन्य से भी अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से भी अन्तमुहूर्त है ।
यदि पर्याप्त अपर्याप्त रूप विशेषण की अपेक्षा किये बिना सामान्य से सूक्ष्मों की कार्यस्थिति के काल का विचार करें तो इस प्रकार है
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