Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधक प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५८
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रण शरीर में उत्पन्न होकर पुनः कालान्तर में प्रत्येक शरीरपना प्राप्त करने पर जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट साधारण का अढाई पुद्गलपरावर्तन प्रमाण कायस्थितिकाल का अंतर है तथा संज्ञीपना छोड़कर असंज्ञी में उत्पन्न होकर पुनः संज्ञित्व प्राप्त करने पर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंज्ञी का असंख्य पुद्गलपरावर्तन कायस्थिति प्रमाण अंतरकाल है। यहाँ असंज्ञी का जो असंख्य पुद्गलपरावर्तन प्रमाण कायस्थितिकाल कहा है, वह वनस्पति की अपेक्षा जानना चाहिये । क्योंकि संज्ञी के अलावा शेष एकेन्द्रियादि सभी असंज्ञी हैं, जिससे उनका उपयुक्त विरहकाल घटित हो सकता है।
पुरुषवेद अथवा स्त्रीवेद को छोड़कर वेदान्तर में जाकर पुनः उन्हें प्राप्त करने पर जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट उन दोनों का नपुसकवेद की असंख्य पुद्गलपरावर्तन प्रमाण कायस्थिति के काल का अंतर है। यहाँ इतना विशेष समझना चाहिये कि पुरुषवेद के विरहकाल का विचार करने में स्त्रीवेद का कायस्थितिकाल अधिक लेना चाहिये और स्त्रीवेद के विरहकाल का विचार करने में पुरुषवेद का कायस्थितिकाल अधिक ग्रहण करना चाहिये। क्योंकि नपुसकवेद के कायस्थितिकाल की अपेक्षा स्त्रीवेद का पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक सौ पल्योपम प्रमाण अथवा पुरुषवेद का कुछ वर्ष अधिक शतपृथक्त्व सागरोपम
है । पहले गाथा ५० में सामान्य बादर की स्वकायस्थिति असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण बतलाई है। जिसका अर्थ यह हुआ कि सूक्ष्म का उत्कृष्ट अंतर भी असंख्य उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण संभव है । जिससे पृथ्वीकायादि किसी भी विवक्षित एक काय में ही सूक्ष्म पृथ्वीकायादिक के अंतर का विचार करें तो सूक्ष्म पृथ्वीकाय जीव सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण बादर पृथ्वीकाय जीव की स्वकायस्थिति पूर्ण कर पुनः सूक्ष्म पृथ्वीकाय में आये तो उस अपेक्षा उक्त अंतर घट सकता है। विशेष बहुश्रु तगम्य है।
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