Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 185
________________ पंचसंग्रह : २ प्रश्न - उपशमश्र णिवर्ती अपूर्वकरणादि का मात्र अन्तर्मुहूर्त अन्तरकाल कैसे है ? क्योंकि प्रत्येक गुणस्थान का अन्तर्मुहूर्त - अन्तमुहूर्त काल है । आठवें से प्रत्येक गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त - अन्तर्मुहूर्त रहकर ग्यारहवें में जाये और वहाँ भी अन्तर्मुहूर्त रहकर वहाँ से गिरकर अनुक्रम से सातवें, छठे गुणस्थान में आकर अन्तमुहूर्त के बाद श्रं णि पर आरूढ़ हो तब अपूर्वकरणादि का स्पर्श करता है, जिससे काल अधिक होता है, अन्तर्मुहूर्त कैसे हो सकता है ? १४८ उत्तर- -उपशमणि का सम्पूर्ण काल भी अन्तर्मुहूर्त है । उपशमश्रेणि से गिरने के बाद कोई आत्मा फिर से भी अन्तर्मुहूर्त के बाद उपशमश्र णि को प्राप्त कर सकती है और अपूर्वकरणादि गुणस्थान को स्पश करती है, जिससे जघन्य अंतर अन्तर्मुहूर्त घटित होता है । अथवा अन्तर्मुहूर्त के असंख्यात भेद हैं, जिससे अपूर्वकरणादि गुणस्थान के बाद अनिवृत्तिबादर और सूक्ष्मसंपराय आदि प्रत्येक गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त-अन्तर्मुहूर्त रहने पर भी और श्रेणि पर से गिरने के बाद अन्तर्मुहूर्त जाने के बाद अन्तर्मुहूर्त - अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण तीन करण करके विवक्षित अपूर्वकरणादि गुणस्थान का स्पर्श करने पर भी यदि अंतर का विचार करें तो अन्तर्मुहूतं ही होता है, अधिक नहीं। क्योंकि गुणस्थान का अन्तर्मुहूर्त छोटा है और अंतरकाल का बड़ा है, जिससे कोई विरोध नहीं है । प्रश्न - अंतरकाल के विचार के प्रसंग में उपशमश्र णिवर्ती अपूर्वकरणादि की विवक्षा क्यों की है, क्षपक णिवर्ती ग्रहण क्यों नहीं किये है ? उत्तर - क्षपक णिवर्ती अपूर्वकरणादि गुणस्थानों में पतन का अभाव होने से पुनः वे गुणस्थान प्राप्त नहीं होते हैं । जिससे क्षपकश्रेणिवर्ती अपूर्वकरणादि गुणस्थानों में अंतर का अभाव है और इसी हेतु से अर्थात् पतन का अभाव होने से क्षीणमोह, सयोगिकेवली और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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