Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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aas - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६१
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अयोगिकेवली गुणस्थानों के अंतर का भी विचार नहीं किया है । क्योंकि वे प्रत्येक गुणस्थान एक बार ही प्राप्त होते हैं ।
प्रश्न - अंतरकाल में दो बार उपशमश्र णि का ग्रहण क्यों किया गया है ?
उत्तर—एक बार उपशमश्र णि प्राप्त करके उसी भव में दूसरी बार क्षपकश्रेणि प्राप्त नहीं करता है । क्योंकि सिद्धान्त के अभिप्रायानुसार एक भव में दोनों श्रेणियों की प्राप्ति असंभव है । जैसा कि कहा है
अन्नयर सेदिवज्जं एगभवेणं च सव्वाइं ।
दोनों श्रेणियों में से अन्यतर श्रेणि को छोड़कर एक भव में देशविरति, सर्वविरति आदि समस्त भाव प्राप्त होते हैं और श्रेणि दोनों में से एक ही या तो उपशमश्रेणि या क्षपकश्र णि प्राप्त होती है । इसीलिये दोनों बार उपशमश्र णिवर्ती अपूर्वकरणादि गुणस्थानों की विवक्षा की है | 2
इस प्रकार गुणस्थानों के जघन्य अन्तरकाल का विचार करने के बाद अब उत्कृष्ट अंतरकाल का विचार करते हैं ।
'मिच्छस्स' इत्यादि अर्थात् मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से अविरत समयदृष्टि आदि गुणस्थानों में जाकर वहाँ से गिरकर पुनः मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त करे तो उसका उत्कृष्ट अंतरकाल एक सौ बत्तीस सागरोपम प्रमाण है ।
१
बृहत्कल्पभाष्य
२ उपर्युक्त अभिप्राय सूत्रकार का है, कर्मग्रन्थकार का नहीं । कर्मग्रंथकार के मत से तो एक भव में उपशम और क्षपक दोनों श्र ेणियां प्राप्त हो सकती हैं । यानि उपशमश्र णि प्राप्त कर वहाँ से पतन कर अन्तर्मुहूर्त काल में क्षपकश्र ेणि प्राप्त करे और अपूर्वकरणादि गुणस्थानों को स्पर्श करे तब भी अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण विरहकाल में कोई विरोध नहीं है ।
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