Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 253
________________ २१६ पंचसंग्रह : २ गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से साधिक एक हजार सागरोपम तक रहते हैं। पुरिसवेएणं भंते ! पुरिसवेए त्ति कालओ केवचिरं होइ ? . गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्त, उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्त साइरेगं । भगवन् ! पुरुषवेद का पुरुषवेद रूप से कितना काल है ? गौतम ! जघन्य से अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट से साधिक शतपृथक्त्व सागरोपम काल जानना चाहिये। (स्त्रीवेद के सम्बन्ध में विशेष वक्तव्य होने से उसका पृथक् निर्देश किया है।) नपुंसगवेए णं भंते ! नपुसगवेए त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं एकसमयं, उक्कोसेणं अणंतं कालं, अणंताओ उस्सप्पिणीओस्सप्पिणीओ कालओ। खेत्तओ अणंता लोगा, असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, आवलियाए असंखेज्जइ भागो। प्रभु ! नपुसकवेद का नपुसकवेद रूप से कितना काल होता है ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अनन्त काल । कालापेक्षा वह अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण है और क्षेत्रापेक्षा अनन्त लोक अथवा आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्य पुद्गलपरावर्तन प्रमाण है । (नपुंसकवेद का यह कायस्थितकाल सांव्यवहारिक जीवों की अपेक्षा समझना चाहिए ।) सन्नी णं भंते ! सग्नि त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्त, उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेगं । हे प्रभो ! संज्ञी का संज्ञी पंचेन्द्रिय के रूप में रहने का कितना काल है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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