Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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११ क्षुल्लकभव का प्रमाण
सबसे छोटे भव को क्षुल्लक या क्षुद्र भव कहते हैं। यह भव निगोदिया जीवों में पाया जाता है। क्योंकि उनकी स्थिति सब भवों की अपेक्षा अति अल्प होती है। __ जैन कालगणना के अनुसार असंख्यात समय की एक आवली होती है और संख्यात आवली का उच्छ्वास-निश्वास होता है इत्यादि के क्रम से स्तोक, लव कहते हुए दो घटिका का एक मुहूर्त होता है। यदि एक मुहूर्त में श्वासोच्छ्वासों की संख्या मालूम करना हो तो १ मुहर्त x २ घड़ी X ३८ लव ७ स्तोक आदि इस प्रकार सबको गुणा करने पर ३७७३ संख्या आती है । इन ३७७३ श्वासोच्छ्वास काल में यानि एक मुहूर्त में एक निगोदिया जीव ६५५३६ बार
जन्म लेता है । अतः ६५५३६ में ३७७३ से भाग देने पर १७१२९२ लब्ध आता
३७७३
है। जिसका आशय यह हुआ कि एक श्वासोच्छ्वास काल में सत्रह से कुछ अधिक क्षुल्लक भव होते हैं और उतने ही समय में २५६ आवली होती हैं।
आधुनिक कालगणना के अनुसार इसी क्षुद्रभव के काल का प्रमाण निकाला जाए तो उसको इस प्रकार समझना चाहिए
एक मुहूर्त में अड़तालीस मिनिट होते हैं और इस मुहूर्त यानि अड़तालीस मिनिट में ३७७३ श्वासोच्छ्वास होते हैं। अतएव इन ३७७३ को ४८ से भाग देने पर एक मिनट में लगभग साड़े अठहत्तर श्वासोच्छ्वास आते हैं। अर्थात् एक श्वासोच्छ्वास का काल एक सकिन्ड से भी कम का होता है। उतने काल में निगोदिया जीव सत्रह से भी अधिक बार जन्म-मरण करता है।
यह है क्षुल्लकभव की व्याख्या। जिससे उस क्षुद्रभव की क्षुद्रता का अनुमान सरलता से किया जा सकता है।
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