Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 258
________________ बंधक-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २२१ गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट असंख्यात उत्सर्पिणीअवसर्पिणो काल है। क्षेत्र से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल है। आहारए णं भंते ! आहारए त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! आहारए दुविहे पन्नत्ते, तं जहा-छउमत्थ-आहारए केवलिआहारए य। छउमत्थाहारए णं भंते छउमत्थाहारए त्ति कालओ केचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं खुड्डगभवग्गहणं ...दुसमयऊणं, उक्कोसेणं असंखिज्जं कालं असंखिज्जाओ उसप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ, खित्तओ अंगुलस्स असंखिज्जइभाग । भगवन् ! काल से आहारक का आहारीरूपता का कितना काल गौतम ! आहारक दो प्रकार के कहे हैं, यथा-१ छद्मस्थ आहारक, २ केवलो आहारक। भगवन् ! छद्मस्थ आहारीपने का कितना काल है ? गौतम ! जघन्य से दो समय न्यून क्षुल्लकभव और उत्कृष्ट से असंख्यात उत्सापणो-अवसर्पिणो रूप असख्यात काल है और क्षेत्र से अंगुल के असख्यातव भागप्रमाण काल है। बायरपुढविकाइए ण भंते ! बायरपुढविकाइए त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गायमा ! जहन्नेणं अंतोमुत्त, उक्कोसेणं सत्तरि सागरोवमकोडाकोडोओ। एवं बायरआउकाइए वि । एवं जाव बायरवाउकाए वि । पत्त यबायरवणस्सइकाइए णं भंते ! पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्त', उक्कोसेणं सत्तरि सागरोवमकोडाकोडीओ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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