Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 198
________________ १६१ बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६-६७ असंख्यातवें भाग में विद्यमान आकाशप्रदेश प्रमाण हैं। उनसे छठी नरकपृथ्वी तमप्रभा के नारक असंख्यातगुण हैं। इन छठी पृथ्वी के नारकों से भी सहस्रार कल्पवासी देव असंख्यातगुणे हैं। छठी नरकपृथ्वी के नारकों के प्रमाण में हेतुभूत जो श्रेणि का असंख्यातवां भाग कहा है, उसकी अपेक्षा सहस्रार कल्पवासी देवों के प्रमाण में हेतुभूत श्रोणि का असंख्यातवां भाग असंख्यात गुणा बड़ा होने से सहस्रार कल्पवासी देव असंख्यातगुण हैं। इन सहस्रारकल्प के देवों से महाशुक्रकल्प के देव असंख्यातगुणे हैं । क्योंकि सहस्रार देवलोक में सिर्फ छह हजार और महाशुक्रकल्प में चालीस हजार विमान हैं तथा नीचे-नीचे के विमानवासी देव अधिक-अधिक तथा ऊपर-ऊपर के विमानवासी देव अल्प संख्या में होते हैं। प्रश्न-ऊपर-ऊपर के देवों के अल्प मानने का कारण क्या है ? उत्तर-ऊपर-ऊपर के कल्पों की सम्पत्ति उत्तरोत्तर गुणप्रकर्ष के योग से अधिक-अधिक पुण्यशाली जीव प्राप्त कर सकते हैं और नीचेनीचे के विमानों की सम्पत्ति अनुक्रम से हीन-हीन गुण के योग से अल्प-अल्प पुण्य वाले जीव प्राप्त करते हैं। उत्तरोत्तर अधिक-अधिक पुण्यप्रकर्ष वाले पुण्यशाली जीव स्वभाव से ही अल्प-अल्प और हीनहोन गुणयुक्त अल्प पुण्यवान जीव अधिक होते हैं, जिससे ऊपर-ऊपर के विमानों में देवों को संख्या अल्प-अल्प और नीचे-नीचे के विमानों में अधिक-अधिक होती है। इसी कारण सहस्रारकल्प के देवों से महाशुक्रकल्प के देव असंख्यातगुणे बतलाये हैं। ___ महाशुक्रकल्प के देवों से पांचवीं नरकपृथ्वी के नारक असंख्यातगुणं हैं। क्योंकि वे श्रेणि के बड़े असंख्यातवें भाग में वर्तमान आकाशप्रदेश राशिप्रमाण हैं। पांचवीं नरकपृथ्वी के नारकों से भी लांतककल्प के देव असंख्यातगुणे हैं। क्योंकि वे श्रेणि के बृहत्तर असंख्यातवें भाग में विद्यमान आकाशप्रदेश राशिप्रमाण हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only, www.jainelibrary.org

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