Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधक - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७४
१७३
बादर पृथ्वी, जल और वायुकाय के जीव उत्तरोत्तर असंख्यात - गुणे हैं, उनसे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी, जल और वायुकाय उत्तरोत्तर विशेषाधिक हैं।
विशेषार्थ - पूर्व गाथा से अपर्याप्त पद की अनुवृत्ति करके यहाँ यह आशय लेना चाहिये कि अपर्याप्त बादर तेजस्काय जीवों से अपर्याप्त प्रत्येक बादर वनस्पतिकाय के जीव असंख्यातगुण हैं। उनसे अपर्याप्त बादर निगोदिया जीव असंख्यातगुण हैं। उनसे अपर्याप्त बादर पृथ्वीकाय जीव असंख्यातगुणं हैं। उनसे अपर्याप्त बादर जलकाय जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अपर्याप्त बादर वायुकाय जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे अपर्याप्त सूक्ष्म तेजस्काय जीव असख्यातगुणे हैं। उनसे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाय जीव विशेषाधिक हैं । उनमे अपर्याप्त सूक्ष्म जलकाय जीव विशेषाधिक हैं और उनसे अपर्याप्त सूक्ष्म वायुकाय जीव विशेबाधिक हैं ।
अब पर्याप्त सूक्ष्म तेजस्काय आदि सम्बन्धी अल्पबहुत्व का निर्देश करते हैं
संखेज्ज सुहुमपज्जत्त तेउ किंचि (च) हिय भूजलसमीरा । तत्तो असंखगुणिया सुहुम निगोया
अपज्जत्ता ॥७४॥
शब्दार्थ - संखेज्ज - संख्यातगुणे, सहुम — सूक्ष्म, पज्जत - पर्याप्त तेउतेजस्काय किंचिहिय - विशेषाधिक, भूजलसमीरा - पृथ्वी, जल और वायुकाय जीव, तत्तो - उनसे, असंखगुणिया - असंख्यातगुणे, सुहुमनिगोया - सूक्ष्म निगोद, अपज्जत्ता - अपर्याप्त ।
गाथार्थ – उनसे सूक्ष्म पर्याप्त तेजस्काय जीव संख्यातगुणे हैं, उनसे पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी, जल और वायु अनुक्रम से विशेषाधिक हैं। उनसे अपर्याप्त सूक्ष्म निगोदिया जीव असंख्यातगुणे हैं । विशेषार्थ - अपर्याप्त सूक्ष्म वायुकाय के जीवों से पर्याप्त सूक्ष्म तेजस्काय के जीव संख्यातगुणे हैं। क्योंकि अपर्याप्त सूक्ष्म जीवों
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