Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : २
सभी जीवों का कुल योग असंख्य लोकाकाश प्रदेशराशि प्रमाण ही है, जिससे अभव्यों और भव्यों की बहुत बड़ी संख्या तो बादर निगोद में ही रही हुई है अन्यत्र नहीं तथा भव्य की अपेक्षा अभव्य बहुत ही कम हैं— अनन्तवें भागमात्र हैं, जिससे अभव्य अनन्त जीव सूक्ष्म बादर निगोद में रहे हुए होने पर भी कुल भव्य जीवों से बादर सूक्ष्म निगोदिया जीवों की संख्या विशेषाधिक ही होती है।
इन सूक्ष्म बादर निगोदिया जीवों की अपेक्षा सामान्य से वनस्पति जीव विशेषाधिक हैं। क्योंकि उनमें प्रत्येक शरीरी वनस्पतिकाय के जीवों का भी समावेश हो जाता है ।
अब सामान्य एकेन्द्रियादि का अल्पबहुत्व कहते हैंएगिंदिया तिरिक्खा चउगइमिच्छा य अविरइजुया य । सजोगसंसारि सव्वेवि ॥७६॥
सकसाया
छउमत्था
शब्दार्थ --- एगिंदिया - एकेन्द्रिय, तिरिक्खा - तिर्यंच, चउगइच्छा -- चारों गति के मिथ्यादृष्टि जीव, य - और, अविरइजुया - अविरतिसहित, य - और, सकसाया - सकषायी, छउमत्था — छद्मस्थ, सजोग - योगवाले, संसारि-संसारी, सदेवि - सभी ।
गाथार्थ - उनसे एकेन्द्रिय तिर्यंच, चारों गति के मिथ्यादृष्टि जीव, अविरति सकषायी, छद्मस्थ, योग वाले और सभी संसारी जीव उत्तरोत्तर विशेषाधिक हैं ।
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विशेषार्थ --- समस्त वनस्पतिकाय जीवों से सामान्यतः एकेन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं। क्योंकि बादर और सूक्ष्म पृथ्वीकायादि जीवों की संख्या का भी उनमें समावेश हो जाता है । अपर्याप्त द्वीन्द्रियादि जीवों की संख्या का भी उनमें समावेश हो जाने से सामान्यतः तिर्यंच उनसे विशेषाधिक हैं ।
तिर्यंचों से चारों गति के मिथ्यादृष्टि जीव विशेषाधिक हैं। क्योंकि अविरतसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थान वाले कितने ही संज्ञी पंचेन्द्रियों
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