Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 233
________________ १६६ पंचसंग्रह : २ एक के ऊपर देय राशि रखकर पूर्व की तरह परस्पर गुणा करना और शलाका राशि में से एक और कम करना । इसी प्रकार से एक-एक कम करते-करते जब समस्त शलाका राशि समाप्त हो जाए तब उस उत्पन्न महाराशि प्रमाण फिर विरलन, देय, शलाका ये तीन राशि स्थापन करना और विरलन राशि का विरलन कर और उसके प्रत्येक एक के ऊपर देय राशि को स्थापित कर देय राशि का उक्त रीति से गुणा करते-करते तथा पूर्वोक्त रीति से ही शलाका राशि में से एक-एक कम करते-करते जब दूसरी बार भी शलाका राशि समाप्त हो जाए तब उत्पन्न महाराशि प्रमाण फिर तीसरी बार उक्त तीन राशि स्थापन करना और उक्त विधान के अनुसार ही विरलन राशि का विरलन कर और देय राशि का परस्पर गुणा तथा शलाका राशि में से एक-एक कम करना । इस प्रकार शलाकात्रय निष्ठापन कर चौथी बार की स्थापित महाशलाका राशि में से पहली, दूसरी, तीसरी शलाका राशि का प्रमाण घटाने पर जो शेष है, उतनी बार उक्त क्रम से ही विरलन राशि का विरलन कर और देय राशि का परस्पर गुणा तथा शेष महाशलाका राशि में से एक-एक कम करना । इस पद्धति से साढ़े तीन बार लोक का गुणा करने पर अन्त में जो महाराशि उत्पन्न हो, उतना ही तेजस्कायिक जीवों का प्रमाण है । इस तेजस्कायिक जीवराशि में असंख्यात लोक का भाग देने से जो लब्ध आये, उस एक भाग को तेजस्कायिक जीवराशि में मिलाने पर पृथ्वीकायिक जीवों का प्रमाण निकलता है और पृथ्वीकायिक जीवों के प्रमाण में असंख्यात लोक का भाग देने पर जो लब्ध आये उस भाग को पृथ्वीकायिक जीवों के प्रमाण में मिलाने पर जलकाय के जीवों का प्रमाण होता है । जलकाय के जीवों के प्रमाण में असंख्यात लोक का भाग देने से जो लब्ध आये, उस एक भाग को जलकाय की जीवराशि में मिलाने पर वायुकायिक जीवों का प्रमाण निकलता है । वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के हैं- प्रत्येक और साधारण । इनमें से अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव असंख्यात लोक प्रमाण हैं और इससे भी असंख्यात लोक गुणा प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवों का प्रमाण है तथा सम्पूर्ण संसारी जीवराशि में से त्रस, पृथिव्यादि चतुष्क (पृथ्वी, अप्, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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