Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 246
________________ दिगम्बरसाहित्यगत पुद्गलपरावर्तनों की व्याख्या कर्मविपाक के वश यह संसारी जीव संसरण-परिवर्तन कर रहा है । संसारस्थ जीव एक शरीर को छोड़कर दूसरे नए शरीर को ग्रहण करता है । तत्पश्चात् उस शरीर को भी छोड़कर नया शरीर ग्रहण करता है । इस प्रकार का संसरण जीव तब तक करता रहता है, जब तक संसरण के कारणभूत कर्मों का संयोग जीव आत्मा के साथ जुड़ा हुआ है। पहले शरीर को छोड़कर दूसरे नए शरीर को ग्रहण करते रहने के दीर्घ समय का बोध कराने के लिए जैनसिद्धान्त में पुद्गलपरावर्तन शब्द का प्रयोग किया है। जैन वाङ्मय में प्रत्येक विषय की चर्चा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, इन चार अपेक्षाओं से होती है। इन अपेक्षाओं के बिना उस विषय की चर्चा पूर्ण नहीं समझी जाती। अतएव श्वेताम्बर साहित्य में परावर्तन का वर्णन द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से किया है। ___ द्रव्य से यहाँ पुद्गल द्रव्य का ग्रहण जानना चाहिए । क्योंकि प्रत्येक परावर्तन के साथ पुद्गल शब्द संलग्न है और उसके ही द्रव्य पुद्गलपरावर्तन आदि चार भेद बताए गए हैं । जीव के परावर्तन, संसार-परिभ्रमण का कारण एक तरह से पुद्गल द्रव्य ही है, संसारस्थ जीव उसके बिना रह नहीं सकता। उस पुद्गल का सबसे छोटा अणु-परमाणु ही यहाँ द्रव्य पद से ग्रहण करना चाहिए । उस परमाणु के अवस्थान के स्थान को क्षेत्र और पुद्गल का एक परमाणु आकाश के एक प्रदेश से उसी के समीपवर्ती दूसरे प्रदेश में जितने समय में पहुंचता है, उसे समय कहते हैं। भाव से अनुभागबंध के कारणभूत जीव के काषायिक भाव जानना चाहिए। क्योंकि ये काषायिक परिणाम ही जीव को संसार में परिभ्रमण कराने के कारण हैं । अतएव इन्हीं द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के परावर्तनों को लेकर श्वेताम्बर साहित्य में चार परावर्तनों की कल्पना की गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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