Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 227
________________ १६० पंचसंग्रह : २ पत्त य बायरस्स उ परमा हरियस्स होइ कार्याठई। ओसप्पिणी असंखा साहारत्त रिउगइयत्त ॥५०॥ मोहठिइ बायराणं सुहमाण असंखया भवे लोगा। साहारणेसुदोसद्धपुग्गला निव्विसेसाणं ॥५१॥ सासणमीसाओ हवंति सन्तया पलियसंखइगकाला। उवसामग उवसंता समयाओ अंतरमुहुत्त ॥५२॥ खवगा खीणाजोगी होति अणिच्चावि अंतरमुहत्त। नाणा जीवे तं चिय सत्तहिं समएहिं अब्भहियं ॥५३॥ एगिदित्त समयं तसत्तणं सम्मदेसचारित्त। आवलियासंखंसं अडसमयं चरित्त सिद्धी य ॥५४॥ उवसममेढी उवसंतया य मणुयत्तणत्तरसुरत्त। पडिवज्जते समया संखेया खवगसेढी य ॥५५॥ बत्तीसा अडयाला सट्ठी बावत्तरी य चलसीई। छन्नउइ दुअट्ठसयं एगाए जहुत्तरे समए ॥५६॥ गब्भयतिरिमणुसुरनारयाण विरहो मुहत्त बारसगं । मुच्छिमनराण चउवीस विगल अमणाण अंतमुहू ॥५७।। तसबायरसाहारण असन्नि अपुमाण जो ठिईकालो। सो इयराणं विरहो एवं हरियेयराण च ॥५८।। आईसाणं अमरस्स अंतरं हीणयं मुहुत्त तो। आसहसारे अच्छयणत्तर दिण मास वास नव ॥५६॥ थावरकालुक्कोसो सव्वट्ठ बीयओ न उववाओ। दो अयरा विजयाइसु नरएसु वियाणुमाणेणं ॥६०।। पलियासंखो सासायणंतरं सेसगाण अंतमुह । मिच्छस्स बे छसट्ठी इयराणं पोग्गलद्धतो ॥६१॥ वासपुहुत्तं उवसामगाण विरहो छमास खवगाणं । नाणा सुजी सासाणमीसाणं पल्लसंखंसो ॥२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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