Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : २ अपर्याप्त द्वीन्द्रिय की अपेक्षा बादर पर्याप्त प्रत्येक वनस्पति जीव असंख्यात गुण कहे हैं, तो भी महा दंडक में पर्याप्त अपर्याप्त द्वीन्द्रिय की अपेक्षा असंख्यातगुणे ही कहे हैं, यह समझना चाहिये।
उनसे (पर्याप्त बादर प्रत्येक वनस्पतिकाय के जीवों से) बादर पर्याप्त निगोदिया जीव-अनन्तकाय के जीव असंख्यातगणे हैं। उनमे पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक असंख्यातगणे हैं, उनसे पर्याप्त बादर जलकाय जीव असंख्यातगुणे हैं। यहाँ यद्यपि पर्याप्त बादर प्रत्येक वनस्पति, पृथ्वीकाय और जलकाय के जीव अंगल के असंख्यातवें भाग प्रमाण सूचिश्रेणि रूप खंड एक प्रतर में जितने होते हैं, उतने सामान्य से बतलाये हैं लेकिन अंगल के असंख्यातवें भाग के असंख्य भेद हैं, जिससे अंगुल का असंख्यातवां भाग अनुक्रम से असंख्यगुण हीन-हीन ग्रहण किये जाने से इस प्रकार असंख्येयगुण कहने में किसी प्रकार का दोष नहीं आता है । महादंडक में भी असंख्येयगुण कहा है।
बादर पर्याप्त जलकाय से बादर पर्याप्त वायुकाय जीव असंख्यातगुणे हैं। क्योंकि वे घनीकृत लोक के असंख्यातवें भाग में वर्तमान असंख्य प्रतर के आकाशप्रदेश प्रमाण हैं। उनसे भी असंख्यात लोकाकाशप्रदेश प्रमाण होने से अपर्याप्त बादर तेजस्काय जीव असंख्यात
गुणे हैं।
अब अपर्याप्त बादर वनस्पति आदि का अल्पबहुत्व बतलाते हैंबादरतरूनिगोया पुढवीजलवाउतेउ तो सुहुमा । तत्तो विसेसअहिया पुढवीजलपवणकाया उ ॥७३॥
शब्दार्थ-बादर-बादर, तरू-वनस्पति, निगोया-निगोद, पुढवीजलवाउतेउ-पृथ्वी, जल, वायू और तेजस्काय, तो-उनसे, सुहुमा--सूक्ष्म, तत्तो-उनमे, विसेसआहिया-विशेषाधिक, पुढवीजलपवणकाया-पृथ्वी, जल, और वायुकाय, उ-और।
गाथार्थ-उनसे बादर अपर्याप्त वनस्पतिकाय असंख्यातगुणे हैं, उनसे अपर्याप्त बादर निगोद असंख्यातगुणे हैं, उनसे अपर्याप्त
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