Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
१६०
पंचसंग्रह : २
ऊपर के प्रस्तर - प्रतर में सौ विमान हैं और प्रत्येक विमान में असंख्यात देव रहते हैं ।
जैसे-जैसे नीचे-नीचे के विमानवासी देवों का विचार किया जाये वैसे-वैसे उनके अन्दर अधिक अधिक देव निवास करने वाले होते हैं । अतएव यह अर्थ निकला कि अनुत्तर विमानवासी देवों की अपेक्षा क्षेत्र पल्योपम के बड़े असंख्यातवें भाग में रहे हुए आकाशप्रदेश प्रमाण ग्रैवेयक के ऊपर के प्रतर के देव हैं। ग्रैवेयक के ऊपर के प्रतर के देवों से ग्रैवेयक के मध्यम प्रतर के देव संख्यातगुणे हैं, उनसे ग्रैवेयक के नीचे के प्रतर के देव संख्यातगुणे हैं ।
ग्रैवेयक के नीचे के प्रतर के देवों से अच्युतकल्प के देव संख्यात गुणे हैं। यद्यपि आरण और अच्युत कल्प समश्रेणि में हैं और समान विमान संख्या वाले हैं तथापि अच्युत देवों से आरणकल्प के देव संख्यातगुणे हैं। क्योंकि आरणकल्प दक्षिण दिशा में है और अच्युतकल्प उत्तर दिशा में है । दक्षिण दिशा में तथास्वभाव से कृष्णपाक्षिक जीव अधिक उत्पन्न होते हैं । कृष्णपाक्षिक जीव अधिक हैं और शुक्लपाक्षिक अल्प होते हैं । इस कारण अच्युतकल्प की अपेक्षा आरणकल्प में देवों का संख्यातगुणत्व संभव है ।
इसी प्रकार आनत और प्राणत कल्प के लिए भी जान लेना चाहिये । आरणकल्पवासी देवों से प्राणतकल्प के देव संख्यातगुणे हैं। उनसे आनतकल्प के देव संख्यातगुण हैं। क्योंकि आनतकल्प दक्षिण दिशा में और प्राणतकल्प उत्तर दिशा में है ।
अनुत्तर विमानवासी देवों से लेकर आनतकल्पवासी देवों पर्यन्त सभी देव प्रत्येक क्षेत्र पल्योपम के असंख्यातवें भाग में विद्यमान आकाश प्रदेश राशि प्रमाण हैं और अनुक्रम से क्षेत्र पल्योपम का असंख्यातवां भाग अधिक अधिक संख्या वाला लेना चाहिये ।
आनतकल्पवासी देवों से सातवीं नरकपृथ्वी के नारक असंख्यात - गुणे हैं। क्योंकि वे घनीकृत लोक की एक प्रादेशिकी सूचिश्रेणि के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org