Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
वधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६१
१४७ के असंख्यातवें भाग जितने काल में सम्यक्त्व और मिश्र मोहनीय की उद्वलना करके छब्बीस की सत्ता वाला होकर तत्काल ही तीन करण करके उपशम सम्यक्त्व प्राप्त कर वहाँ से गिरकर सासादन में आये तो उसकी अपेक्षा सासादन का जघन्य अन्तर पल्योपम का असंख्यातवां भाग घटित होता है। __'सेसगाण अन्तमुह' अर्थात् शेष यानी सासादन गुणस्थान के सिवाय शेष रहे मिथ्यादृष्टि, सम्यमिथ्या दृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरति, प्रमत्तविरति, अप्रमत्तविरति, उपशमश्रेणि सम्बन्धी अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसंपराय, सूक्ष्मसंपराय और उपशान्तमोह, इन दस गुणस्थानों का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि मिथ्या दृष्टि आदि अपने-अपने उस-उस गुणस्थान को छोड़कर अन्य गुणस्थान में जाकर पुन: अपने-अपने उसउस गुणस्थान को अन्तर्मुहूर्त काल जाने के बाद प्राप्त कर सकते हैं।
१ किसी जीव ने मिथ्यादृष्टि में तीन करण करके उपशमसम्यक्त्व प्राप्त
किया और वहाँ से गिरकर वह सासादन को स्पर्श कर पहले गुणस्थान में आये, वहां अन्तम हर्त रह, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त कर ऊपर के गुणस्थानों में जाकर अन्तम हर्त श्रेणि का उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करके उपशमणि पर आरूढ हो। उसके बाद श्रेणि से गिरकर अन्तमुहूर्त में ही सासादन का स्पर्श कर सकता है। इस प्रकार से सासादन की स्पर्शना का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त भी सम्भव है। लेकिन उसकी
यहाँ विवक्षा नहीं की है। २ कोई भी जीव पहले गुणस्थान से चौथे, पांचवें गुणस्थान में जाकर वहाँ
से गिरकर पहले में आकर और अन्तमहतं काल में क्षयोपशम सम्यक्त्व प्राप्त कर चौथे, पांचवें गुणस्थानों में जा सकता है और छठा, सातवा गुणस्थान तो प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त में बदलता ही रहता है । इसलिये उनका भी अन्तर्मुहूर्त अन्तर संभव है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org