Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बधक प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६४
'उवसमगुवसंतयाण चउ पंच' अर्थात् उपशमश्र णिवर्ती अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसंपराय और सूक्ष्मसंपराय तथा उपशांतमोह इन चार गुणस्थानों में चार या पांच भाव होते हैं ।
जब चार भाव होते हैं तब औदयिक, औपशमिक, पारिणामिक और क्षायोपशमिक ये चार भाव होते हैं । उनमें मनुष्यगति, वेद, कषाय, या आदि औदयिक भाव की अपेक्षा; जीवत्व, भव्यत्व पारिणामिक भाव की अपेक्षा; उपशम सम्यक्त्व उपशम भाव की अपेक्षा और ज्ञान, दर्शन और दानादि लब्धि आदि क्षायोपशमिक भाव की अपेक्षा से हैं ।
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किन्तु इतना विशेष जानना चाहिये कि दसवें सूक्ष्मसंपराय और ग्यारहवें उपशांतमोह गुणस्थान में औदयिक भावगत वेद और कषायों को ग्रहण नहीं करना चाहिये । क्योंकि नौवें गुणस्थान में उपशमित हो जाने से आगे के गुणस्थानों में उनका उदय नहीं होता है । क्षायोपशमिक भाव में वेदक सम्यक्त्व को नहीं लेना चाहिये। क्योंकि वह चौथे से सातवें गुणस्थान पर्यन्त ही होता है और उपशम भाव में उपशम चारित्र अधिक कहना चाहिये । 1 जब क्षायिक सम्यग्दृष्टि उपशम श्रेणि पर आरूढ होता है तब क्षायिक भाव में क्षायिक सम्यक्त्व और
१ ग्यारहवें गुणस्थान में तो चारित्रमोहनीय की प्रत्येक प्रकृति का उपशम हो जाने से उपशम भाव का चारित्र होता है । परन्तु दसवें गुणस्थान में सूक्ष्म लोभ का उदय होने पर भी उपशम भाव का चारित्र नहीं होता है, क्षायो - पशमिक भाव का होता है । यहाँ जो उपशम भाव का लिया है, वह अपूर्ण को पूर्ण मानकर कहा है । क्योंकि चारित्रमोहनीय की बीस प्रकृतियां उपशांत हो गई हैं और लोभ का भी अधिक भाग उपशमित हो गया है । मात्र अल्प अंश ही शेष है । इसलिये उसको पूर्ण मान कर लेने में अनुचित जैसा कुछ नहीं है ।
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