Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : २
प्रमाण कायस्थितिकाल अल्प ही है। इस प्रकार स्थावर, सूक्ष्म, प्रत्येक शरीर, संज्ञी और स्त्री - पुरुषवेद का अंतर जानना चाहिये ।
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अब त्रस, बादर, साधारण, असंज्ञी और नपुंसकवेद के अंतर का निर्देश करते हैं
स्थावर, सूक्ष्म, प्रत्येक शरीरी, संज्ञी और स्त्री-पुरुषवेद में से प्रत्येक का जो कार्यस्थितिकाल है, वह अनुक्रम से त्रस, बादर, साधारण, असंज्ञी और नपुंसकवेद का विरहकाल समझना चाहिये । जैसे कि त्रस अवस्था छोड़कर स्थावर में उत्पन्न हो पुनः सत्व प्राप्त करने पर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थावर का आवलिका के असंख्यातवें भाग में रही हुई समयराशि प्रमाण असंख्य पुद्गलपरावर्तनरूप काय स्थिति विरहकाल जानना चाहिये तथा बादरभाव को छोड़कर सूक्ष्म एकेन्द्रिय में उत्पन्न होकर पुनः बादरभाव को प्राप्त करने पर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सूक्ष्म का असंख्यात लोकाकाश के प्रदेशों का प्रतिसमय अपहार करने के द्वारा उत्पन्न हुई असख्यात उत्सर्पिणी - अवसर्पिणी प्रमाण काय स्थिति विरहकाल जानना चाहिये तथा निगोदपने को छोड़कर प्रत्येक शरीरी में उत्पन्न हो पुनः कालान्तर में निगोद में उत्पन्न होने पर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट प्रत्येक शरीरी का असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण कायस्थिति विरहकाल जानना चाहिये तथा असंज्ञीपने को छोड़कर संज्ञी में उत्पन्न हो पुनः असंज्ञीभाव को प्राप्त करने पर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संज्ञीपने का कुछ वर्ष अधिक शतपृथक्त्व सागरोपम कार्यस्थिति प्रमाण अंतरकाल है और नपुंसकपने को त्यागकर पुरुषवेदी या स्त्रीवेदी में उत्पन्न हो पुनः नपुंसकवेद को प्राप्त करने पर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्त्रीवेद और पुरुषवेद की कार्यस्थिति प्रमाण अंतरकाल है । स्त्रीवेद का उत्कृष्ट कार्यस्थितिकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक सौ पल्योपम प्रमाण और पुरुषवेद का कायस्थितिकाल कुछ वर्ष अधिक शतपृथक्त्व सागरोपम प्रमाण समझना चाहिये ।
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