Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : २ धान का सामान्य नियम यह है कि सप्रतिपक्षी एक भेद का जितना स्थितिकाल हो, उतना उसके विपरीत–विरुद्ध भेद को विरहकाल जानना चाहिये । जैसे कि स्थावर या सूक्ष्मपने का विरहकाल कितना? अर्थात् कोई एक जीव कितने काल के बाद स्थावर भाव या सूक्ष्म रूप प्राप्त करता है ? इसका निर्णय करना हो तो प्रतिपक्षी भेद बस और बादर में उत्कृष्ट से वह जीव कितने काल रहता है, यह विचार कर निर्णय करना चाहिये । अर्थात् एक जीव अधिक से अधिक जितने काल त्रस रूप और बादर रूप में रहता है, उतना स्थावर और सूक्ष्म का अंतरकाल कहलायेगा।
अब इसी संक्षिप्त का विस्तार से विचार करते हैं
त्रस, बादर, साधारण, असंज्ञी और नपुसकवेद में से प्रत्येक का जितना स्थितिकाल है, उतना अनुक्रम से उनके प्रतिपक्षी स्थावर, सूक्ष्म, प्रत्येक शरीर, संज्ञी और स्त्री-पुरुष वेद का उत्कृष्ट से विरहकाल समझना चाहिये । जैसे कि स्थावरत्व को छोड़कर पुनः स्थावरपना प्राप्त करते कितना काल जाता है ? तो बतलाते हैं कि जघन्य से अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट से त्रसकाय का कायस्थिति काल कुछ वर्ष अधिक दो सागरोपम प्रमाण काल जाता है। जघन्य से अन्तमुहूर्त का विचार इस प्रकार से समझना चाहिये कि कोई एक जीव स्थावररूप छोड़कर अन्तर्मुहूर्त की आयु वाले त्रस में आकर पुनः स्थावर में जाये तो उसकी अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल घटित होता है और कोई जीव कुछ अधिक दो हजार सागरोपम त्रस में रहकर मोक्ष में न जाये तो उसके बाद अवश्य स्थावरों में जाता है। इस प्रकार से उत्कृष्ट अन्तरकाल घटित होता है।
इसी प्रकार सूक्ष्मरूप प्राप्त करने पर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से बादर का सत्तर कोडीकोडी सागरोपम प्रमाण कायस्थिति काल का अन्तर है तथा प्रत्येक शरीर रूप को छोड़कर साधा१ यहाँ सूक्ष्मत्व का उत्कृष्ट अंतर सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण बत
लाया है, किन्तु सामान्य सूक्ष्म की अपेक्षा उतना अंतर घट नहीं सकता
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