Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : २
Grand
सिद्ध में, बीयओ — दूसरी बार न- नहीं, उववाओ - उपपात - जन्म, दोदो, अयरा - सागरोपम, विजयाइसु विजयादिकों में, नरएसु - नरकों में, वियाणुमाणेणं - अनुमान से जानना चाहिये ।
गाथार्थ -ग्रैवेयक तक के देवों का उत्कृष्ट अंतरकाल स्थावर का काल समझना चाहिये । सर्वार्थसिद्ध विमान में दूसरी बार उपपात नहीं होता है | विजयादि में दो सागरोपम अंतरकाल है और नरकों में इसी अनुमान से अंतरकाल जानना चाहिये । विशेषार्थ - भवनपति से लेकर नौवें ग्रैवेयक तक के समस्त देवों में से च्यवकर पुनः अपनी उसी देवनिकाय में उत्पन्न होने का उत्कृष्ट अंतर स्थावर की स्वकायस्थिति आवलिका के असंख्यातवें भाग में रहे हुए समय प्रमाण असंख्यात पुद्गलपरावर्तन रूप काल जानना चाहिए ।
'सव्वट्टे' बीयओ न उववाओ' अर्थात् सर्वार्थसिद्ध महाविमान के देव वहाँ से च्यव कर मनुष्य हो उसी भव से मोक्ष में जाते हैं। क्योंकि वे सभी एकावतारी होते हैं, जिससे वे पुनः सर्वार्थसिद्ध महाविमान में उत्पन्न नहीं होते हैं । इसलिये उनमें जघन्य या उत्कृष्ट किसी भी प्रकार का अंतर नहीं होता है ।
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विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित इन चार अनुत्तर देवों में से व्यवकर मनुष्य हो विजयादि देवों में उत्पत्ति का उत्कृष्ट अंतर दो सागरोपम का है- 'दो अयरा विजयाइसु" क्योंकि विजयादि में से व्यवकर पुन: विजयादि में उत्पन्न हो तो मनुष्य और सौधर्मादि
१ विजयादि में से व्यक्ति हुआ जीव नारकों या तिर्यंचों में उत्पन्न नहीं होता है । अधिक से अधिक दो सागरोपम काल मनुष्य और सौधर्मादि देव भवों में व्यतीत कर विजयादि में उत्पन्न हो मोक्ष में जाता है । विजयादि में गया हुआ जीव पुन: विजयादि में जाये, ऐसा कोई नियम नहीं है । मोक्ष में न जाये और विजयादि में जाये तो उपर्युक्त उत्कृष्ट अंतर संभव है ।
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