Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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सिज्झति जत्तिया किर इह संववहारजीवरासीओ 1 अणाइवणस्सइरासीओ तत्तिया तंमि ॥
इंति
पंचसंग्रह : २
अर्थात् सांव्यवहारिक राशि में से जितने जीव मोक्ष में जाते हैं, उतने जीव अनादि वनस्पति राशि में से — सूक्ष्म निगोदराशि में से सांव्यवहारिक राशि में आते हैं ।
इस प्रकार से वेदत्रिक और संज्ञित्व की कायस्थिति का निर्देश करने के बाद अब बादर पर्याप्त एकेन्द्रिय आदि की कायस्थिति को बतलाते हैं ।
बादर पर्याप्त एकेन्द्रियादि की कार्यस्थिति
बायरपज्जेगिदिय विगलाणय वाससहस्स संखेज्जा । पत्तेगमंतमुहू ||४६ ||
अपज्जंत सुहुमसाहारणाण
शब्दार्थ - बायर - बादर, पज्जेगिदिय - पर्याप्त एकेन्द्रिय, विगलाण - विकलेन्द्रियों की, य― और वाससहस्स– हजार वर्ष, संखेज्जा -- संख्यात, अपज्जत -- अपर्याप्त, सुहुमसाहारणाण - सूक्ष्म, साधारण की, पत्ते गं - प्रत्येक, अतं मुहू- अन्तर्मुहूर्त |
गाथार्थ - बादर पर्याप्त एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों की कायस्थिति संख्यात हजार वर्ष है और अपर्याप्त, सूक्ष्म और साधारण इन प्रत्येक की कार्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त है ।
विशेषार्थ - गाथा में बादर पर्याप्त एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और अपर्याप्त, सूक्ष्म, साधारण जीवों की कार्यस्थिति का प्रमाण बतलाया है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
बारम्बार पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय रूप से बादर एकेन्द्रिय की कार्यस्थिति जघन्य से उत्कृष्ट से संख्यात हजार वर्ष की है । यह बादर पर्याप्त एकेन्द्रिय की काय स्थिति का विचार सामान्य बादर पर्याप्त एकेन्द्रिय की अपेक्षा से किया गया है। लेकिन बादर पर्याप्त पृथ्वीकाय एकेन्द्रिय, बादर
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उत्पन्न होने वाले पर्याप्त अन्तर्मुहूर्त की है और
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