Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : २
सागरोपम प्रमाण है। अर्थात् लगातार संज्ञित्व की प्राप्ति होती रहे, असंज्ञी में न जाये तो उत्कृष्ट काल शतपृथक्त्व सागरोपम प्रमाण है, उसके बाद अवश्य ही असंज्ञीपना प्राप्त होता है। यहाँ भी पुरुषवेद की उत्कृष्ट कायस्थिति की तरह शतपृथक्त्व सागरोपम कुछ वर्ष अधिक समझना चाहिये। ___ स्त्रीवेद निरन्तर प्राप्त हो तो जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक सौ पल्योपम पर्यन्त प्राप्त होता है। जीव यदि निरन्तर एक के बाद एक लगातार स्त्रीवेदी ही हो तो जघन्य
और उत्कृष्ट से उपर्युक्त काल सम्भव है, तत्पश्चात् अवश्य ही वेदान्तर होता है। निरन्तर जघन्य से एक समय प्रमाण काल होने का कारण यह है कि कोई एक स्त्री उपशमश्रेणि में तीनों वेद के उपशम द्वारा अवेदिपना अनुभव कर श्रोणि से गिरते हुए एक समय मात्र स्त्रीवेद का अनुभव कर दूसरे समय में मरण कर देवलोक में उत्पन्न हो और श्रेणि में कालधर्म (मरण) को प्राप्त करने वाला अनुत्तर विमान में उत्पन्न होता है और वहाँ पुरुषत्व ही प्राप्त होने से, उसकी अपेक्षा स्त्रीवेद का जघन्य काल एक समय घटित होता है।
नपुंसकत्व का निरन्तर काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अनन्त काल है । जघन्य एक समय काल तो स्त्रीवेद के समान और उत्कृष्ट असंख्यात पुद्गलपरावर्तन प्रमाण अनन्त काल सांव्यवहारिक
वेद की स्वकायस्थिति में द्रव्यवेद की विवक्षा है, भाव की नहीं। क्योंकि भाववेद अन्तर्मुहूर्त में बदल जाता है। फिर भी स्त्रीवेद का जघन्य स्वकाय स्थितिकाल बताते हुए भाववेद लिया हो, ऐसा प्रतीत होता है। क्योंकि
उसके सिवाय एक समय घटित नहीं होता है। २ आर्य श्यामाचार्य द्वारा प्रदर्शित स्त्रीवेद सम्बन्धी उत्कृष्ट स्थिति विषयक
पूर्वाचार्यों के मतान्तरों को परिशिष्ट में देखिये ।
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