Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४८ वेदत्रिक आदि की कायस्थिति
पुरिसत्त सन्नित्तं, सयपुहुत्तं तु होइ अयराणं । थी पलियसयपुहुत्तं, नपुंसगत्तं अणंतद्धा ॥४८॥ शब्दार्थ-पुरिसत्त-पुरुषत्व का, सन्नित्त ---संज्ञित्व का, सयपुहुत्तंशतपृथक्त्व, तु-और, होइ-होता है, अयराणं-सागरोपम, थी-स्त्रीत्व का पलियसयपुहुत्तं-पल्योपमशतपृथक्त्व, नपुंसगत्तं-नपुसकत्व का, अणंतद्धाअनन्त काल ।
गाथार्थ-पुरुषत्व और संज्ञित्व का काल सागरोपम शतपृथक्त्व है । स्त्रीत्व का शतपृथक्त्व पल्योपम और नपुसकत्व का अनन्त काल है।
विशेषार्थ-गाथा में वेदत्रिक और संज्ञित्व की कायस्थिति का काल बतलाया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
पुरुषवेद का निरन्तरकाल यानि बीच में किंचिन्मात्र भी अन्तर पड़े बिना निरन्तर पुरुषत्व-पुरुषवेदत्व प्राप्त हो तो जघन्य से अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट से सागरोपम शतपृथक्त्व है। तत्पश्चात् अवश्य ही वेदान्तर हो जाता है। परन्तु यह विशेष समझना चाहिये कि ये शतपृथक्त्व सागरोपम कुछ वर्ष अधिक सहित हैं। अर्थात् यदि निरन्तर पुरुषत्व की प्राप्ति हो तो उसका काल कुछ वर्ष अधिक शतपृथक्त्व सागरोपम प्रमाण है तथा इसी प्रकार संज्ञित्व का समनस्कपने का भी निरन्तरकाल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से शतपृथक्त्व
१ उसी पुरुषवेदी की अपेक्षा पुरुषवेद का जघन्य काल घटित नहीं होता है।
किन्तु अन्यवेदी की अपेक्षा घट सकता है। क्योंकि अन्य वेद वाला पुरुषवेद में आकर अन्तर्मुहूर्त रहकर मर जाये और फिर अन्यवेद में उत्पन्न हो । अन्तमहर्त से आयु अल्प होती नहीं है। जिससे उसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त बताया जाता है ।
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