Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : २ अनेक और एक अपर्याप्तक, मणूण-मनुष्य का, पल्लसंखस-पल्योपम का असंख्यातवां भाग, अंतमुहू-अन्तमुहूर्त ।।
गाथार्थ-(पर्याप्त) तिर्यंचों और मनुष्यों की स्व-कायस्थिति का काल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम है। अनेक और एक अपर्याप्त मनुष्य का काल पल्योपम का असंख्यातवां भाग और अन्तमुहूर्त है।
विशेषार्थ-पूर्व में जो पर्याप्त मनुष्य और तिर्यंच की कायस्थिति सात, आठ भव बताई है, उन भवों का योग इस गाथा में बतलाया है कि वह पूर्वकोटिपृथक्त्व और तीन पल्योपम होता है। जिसका स्पष्टी- . करण इस प्रकार है___ जब पर्याप्त मनुष्य अथवा पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच पूर्व के सात भवों में पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाले हों और आठवें भव में तीन पल्योपम की आयु वाले हों तब उनकी सात करोड पूर्व वर्ष अधिक तीन पल्योपम उत्कृष्ट कायस्थिति काल होता है।
इस प्रकार से पर्याप्त मनुष्य और सज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की कायस्थिति जानना चाहिये। ___ अब अनेक और एक की अपेक्षा अपर्याप्त मनुष्य और तिर्यंचों की कायस्थिति का प्रमाण बतलाते हैं कि अनेक की अपेक्षा अपर्याप्त मनुष्य के रूप में एक के बाद एक के क्रम से निरन्तर उत्पन्न हों तो उनका निरन्तर उत्पन्न होने का काल पल्योपम का असंख्यातवां भाग प्रमाण है । यानि इतने काल पर्यन्त वे निरन्तर उत्पन्न हो सकते हैं, उसके बाद अन्तर पड़ता है तथा बार-बार उत्पन्न होते हुए एक अपर्याप्त मनुष्य का काल जघन्य और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त है । यानी कोई भी एक अपर्याप्त मनुष्य एक के बाद एक लगातार अपर्याप्त मनुष्य हुआ करे तो उसका जघन्य काल भी अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल भी अन्तमुहूर्त है। वह निरन्तर जितने भव करता है, उन सबका मिलकर काल अन्तमुहूर्त ही होता है।
इस प्रकार से एकन्द्रिय आदि की कास्थिति बतलाने के बाद अब वेदत्रिक आदि की कायस्थिति बतलाते हैं।
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