Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५१
१२५ इस प्रकार आवश्यक निर्देश करने के बाद अब बादर पृथ्वीकाय आदि की कायस्थिति बतलाते हैं
पर्याप्त अपर्याप्त विशेषण रहित बादर पृथ्वी, जल, तेज, वायु, प्रत्येक और साधारण वनस्पतिकाय की जघन्य कायस्थिति अन्तमुहर्त प्रमाण है और उत्कृष्ट मिथ्यात्वमोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति जितनी सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है।
'सुहुमाण असंखया भवे लोगा' अर्थात् बारम्बार सूक्ष्म रूप से उत्पन्न होने वाले पर्याप्त अपर्याप्त विशेषण रहित सूक्ष्म पृथ्वीकाय आदि की कास्थिति काल जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यात लोकाकाश में विद्यमान आकाश प्रदेशों में से समय-समय एक-एक का अपहार करते जितनी उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी हों, उतना है। पर्याप्त अपर्याप्त विशेषण विशिष्ट पृथ्वीकायादि की कायस्थिति पूर्व में बताई जा चुकी है । अतएव यहाँ सामान्य से ही समझना चाहिये।
सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त या अपर्याप्त इनमें से किसी भी विशेषण से रहित साधारण ( निगोदिया जीव) की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अढ़ाई पुद्गलपरावर्तन प्रमाण है।
जब सामान्य से सूक्ष्म निगोद सम्बन्धी कायस्थिति का विचार करते हैं तब असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण काल है और सामान्य से बादर निगोद की अपेक्षा विचार करते हैं तब सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण कायस्थिति है तथा पर्याप्त सूक्ष्म निगोद की अपेक्षा अथवा अपर्याप्त सूक्ष्म निगोद की अपेक्षा, इस प्रकार भिन्न-भिन्न रीति से विचार करते हैं तब जघन्य और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कायस्थिति है। इसी प्रकार बादर निगोद के लिये भी समझना चाहिये।
१ यह निगोद की कायस्थिति सांव्यवहारिक जीवों की अपेक्षा जानना
चाहिये । बारम्बार निगोदिया रूप से उत्पन्न होने वाले असांव्यवहारिक
जीवों की कायस्थिति तो अनादि है। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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