Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : २
का समय-समय अपहार करते-करते जितना काल हो, उतना काल घटित होता है। दूसरे-दूसरे जीव उस गुणस्थान को प्राप्त करें तो उतने काल करते हैं, उसके बाद अवश्य अन्तर पड़ता है।
उपशमक-उपशमश्रोणिवर्ती अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसंपराय, सूक्ष्मसपराय और उपशांतमोह गुणस्थानों में से प्रत्येक का निरन्तर काल जघन्य एक समय है। क्योंकि एक या अनेक जीव अपूर्वकरणादि गुणस्थानों में आकर उस उस गुणस्थान को एक समय मात्र स्पर्श कर मरण को प्राप्त करें और अन्य जीव उसमें प्रविष्ट न हों तो जघन्य एक समय काल घटित होता है और निरन्तर अन्य अन्य जीव उस उस गुणस्थान को प्राप्त करें तो उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त ही प्राप्त करते हैं । तत्पश्चात् अवश्य अन्तर पड़ता है।
क्षपक-क्षपकश्रोणि वाले अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसंपराय, सूक्ष्मसंपराय तथा क्षीणमोही और भवस्थ अयोगिकेवली आत्मायें अनित्य हैं अर्थात् उन गुणस्थानों में होती भी हैं और नहीं भी होती हैं । परन्तु जब होती हैं तब अन्तमुहूर्त पर्यन्त होती हैं। क्योंकि उस उस गुणस्थान का उतना उतना काल है।
क्षपकश्रोणि एवं क्षीणमोह गुणस्थान में कोई भी जीव मरण को प्राप्त नहीं होता है और चौदहवें गुणस्थान में अन्तमुहूर्त रहकर अघाति कर्मों का क्षय कर मोक्ष में जाता है। यानि उपशमश्रेणिवर्ती अपूर्वकरणादि की तरह क्षपकोणिवर्ती अपूर्वकरणादि का जघन्य काल नहीं होता है। ___अनेक जीवों की अपेक्षा भी क्षपकौणिवर्ती अपूर्वकरणादि गुणस्थान यदि निरन्तर भी हों तो अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त ही होते हैं, तदनन्तर अवश्य अन्तर पड़ता है। क्योंकि सम्पूर्ण क्षपकौणि का निरन्तर काल अन्तर्मुहूर्त ही है । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि एक जीवाश्रित अन्तर्मुहूर्त से अनेक जीवाश्रित अन्तर्मुहूर्त सात समय अधिक है।
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