Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६
का पहला मूल सोलह, दूसरा मूल चार और तीसरा मूल दो है। अब इन तीनों मूल और दो सौ छप्पन इन चारों राशियों को बड़ी-छोटी संख्या के क्रम से इस प्रकार रखें-२५६, १६, ४, २ और उसके बाद पूर्व से उत्तर की एक-एक राशि के साथ गुणाकार करें। जैसे कि दो सौ छप्पन को पहले मूल सोलह के साथ गुणा करने पर २५६४१६ = ४०६६ (चार हजार छियानवें) होते हैं। इतनी रत्नप्रभापृथ्वी के नारकों की संख्या के लिये श्रेणियाँ समझना चाहिये । अर्थात् चार हजार छियानवे सूचिश्रेणि में जितने आकाशप्रदेश हों, उतने ही रत्नप्रभापृथ्वी के नारक हैं।
दूसरे वर्गमूल चार के साथ पहले मूल सोलह का गुणाकार करना और गुणा करने पर १६४४ = ६४ (चोंसठ) आये । इतनी सूचिश्रेणियों में रहे हुए आकाशप्रदेश भवनपति देवों का प्रमाण है।' ___ तीसरे मूल दो के साथ दूसरे मूल चार का गुणा करने पर ४४२%D८ (आठ) आये। उतनी सूचिश्रेणि में रहे हुए आकाशप्रदेशप्रमाण सौधर्म देवलोक के देव हैं।
इस प्रकार उपयुक्त कथन से यह सहज ही स्पष्ट हो जाता है कि कौन किस से अधिक और कौन किससे कम हैं। ___ अब दूसरे प्रकार से भी रत्नप्रभा के नारकादि के विषय में श्रेणि का प्रमाण बतलाते हैं
अहवंगुलप्पएसा समूलगुणिया उ नेरइयसूई ।
पढमदुइयापयाइं समूलगुणियाई इयराणं ॥१९॥ शब्दार्थ-अहव-अथवा, अंगुलप्पएसा-अंगुण प्रमाण क्षेत्रवर्ती प्रदेशों का, समूलगुणिया-अपने मूल के साथ गुणा करने पर, उ-और, नेरइयसूईनारकों की सूचिश्रेणि, पढम-दुइयापयाई-प्रथम और द्वितीय पद का, समूल
१ नारकों और भवनपति देवों की संख्या के लिये अनुयोगद्वार सूत्र आदि ग्रंथों
के निर्देश को परिशिष्ट में देखिये ।
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