Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह में जघन्य पच्चीस सागरोपम, उत्कृष्ट छब्बीस सागरोपम, मध्यम-मध्यम ग्रेवेयक में जघन्य छब्बीस सागरोपम, उत्कृष्ट सत्ताईस सागरोपम, मध्यम-उपरितन ग्रंवेयक में जघन्य आयु सत्ताईस सागरोपम, उत्कृष्ट अट्ठाईस सागरोपम को, उपरितन-अधस्तन ग्रेवेयक में जघन्य अट्ठाईस सागरोपम की, उत्कृष्ट उनतीस सागरोपम की, उपरितन-मध्यम ग्रेवेयक में जघन्य उनतीस सागरोपम और उत्कृष्ट तीस सागरोपम, उपरितन-उपरितन ग्रंवेयक में जघन्य तीस सागरोपम, उत्कृष्ट इकतीस सागरोपम की आयु होती है ।
पांच अनुत्तर विमानों में से विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित, इन चार अनुत्तर विमान के देवों की जघन्य आयु इकतीस सागरोपम, उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम' और सर्वार्थसिद्ध महाविमान के देवों की अजघन्योत्कृष्ट अर्थात् जघन्य और उत्कृष्ट ऐसे भेद के स्थिति बिना एक जैसी तेतीस सागरोपम प्रमाण आयु होती है।
इस प्रकार सातवीं नरकपृथ्वी के नारकों और अनुत्तर विमानवासी देवों को छोड़कर अन्यत्र तेतीस सागरोपमप्रमाण आयु नहीं होती है, इसीलिये उनकी (सातवीं नरक के नारकी और सर्वार्थसिद्ध विमान के देव की) अपेक्षा ही संज्ञो पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों की उत्कृष्ट भवतेतीस सागरोपमप्रमाण जानना चाहिये ।
इस प्रकार से भवस्थिति काल का विचार करने के बाद अब एक जीव के प्रत्येक गुणस्थान में रह सकने के काल को बतलाते हैं। मिथ्यात्वगुणस्थान का काल
होइ अणाइ अणंतो अणाइ संतो य साइसंतो य । देसूणपोग्गल अंतमुहत्तं चरिममिच्छो ॥३६॥
१ तत्त्वार्यधिगमसूत्र ४।३८ में तथा उसके भाष्य में विजयादि चार की _उत्कृष्ट आयु ३२ सागरोपम है । २ प्रज्ञापनासूत्र में आगत भवस्थिति का वर्णन परिशिष्ट में देखिये ।
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