Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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काल पुद्गलपरावर्तन उस्सप्पिणिसमएसु अतरपर' पराविभत्तीहि । कालम्मि बायरो सो सुमो उ अणंतरमयस्स ॥४०॥
पंचसंग्रह : २
शब्दार्थ - उस्सप्पिणिसमएस - उत्सर्पिणी ( और अवसर्पिणी) के समयों को, अणंतरपरंपराविभत्तीहि —अनन्तर और परम्परा प्रकार से, कालम्मि — काल में, बादर - बादर, सो— वह, सुहुमो— सूक्ष्म, उ- और, अणंतरमयस्स— अनन्तर प्रकार से मरते हुए ।
गाथार्थ - अनन्तर अथवा परम्परा प्रकार से उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के समयों को मरण द्वारा स्पर्श करते हुए जितना काल होता है, उसे बादर काल पुद्गलपरावर्तन कहते हैं और अनन्तर प्रकार से-- एक के बाद एक समयों को मरण द्वारा स्पर्श करते जितना काल होता है, उसे सूक्ष्म काल पुद्गलपरावर्तन कहते हैं ।
विशेषार्थ - द्रव्य और क्षेत्र पुद्गलपरावर्तन का स्वरूप बतलाने के बाद अब यहाँ काल पुद्गलपरावर्तन का विचार करते हैं । इसके भी बादर और सूक्ष्म यह दो भेद हैं । उनमें से पहले बादर काल पुद्गलपरावर्तन का स्वरूप बतलाते हैं—
'उस्सप्पिणीसमएसु' अर्थात् उत्सर्पिणी के ग्रहण से अवसर्पिणी का भी उपलक्षण से ग्रहण करके यह अर्थ करना चाहिये कि उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के समस्त समयों में अनन्तर प्रकार से और परम्परा से मरण को प्राप्त करते हुए जीव को जितना काल होता है, उतने को काल बादर पुद्गलपरावर्तन कहते हैं । यानि जितने काल में एक जीव उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के सर्व समयों को क्रम या अक्रम से मरण द्वारा स्पर्श करे अर्थात् येनकेन प्रकारेण समस्त समयों में मरण प्राप्त करे, उतने काल को बादर काल पुद्गलपरावर्तन कहते हैं ।
अब सूक्ष्म काल पुद्गलपरावर्तन का स्वरूप बतलाते हैं
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