Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : २
क्योंकि उसके बाद क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है । उपशम सम्यक्त्व अन्तर्मुहूर्त से अधिक काल नहीं रहता है, जिससे देशविरत आदि गुणस्थानों में अधिक काल रहना हो तो क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त कर लेता है तथा देशविरति आदि प्राप्त न करे किन्तु मात्र सम्यक्त्व प्राप्त करे तो अन्तर्मुहूर्त के बाद गिरकर कोई सासादनभाव को प्राप्त होता है और कोई क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है तथा उपशमश्रण का काल अन्तर्मुहूर्त होने से श्रेणि के उपशम सम्यक्त्व का काल भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही है । इस तरह दोनों उपशम सम्यक्त्वों का जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त का ही घटित होता है । मात्र जघन्य से उत्कृष्ट विशेषाधिक है ।
क्षायिक सम्यक्त्व अनन्तकाल पर्यन्त होता है - खाइयदिट्टी अनंतद्धा' । इसका कारण यह है कि क्षायिक सम्यक्त्व दर्शनमोहनीय के सम्पूर्ण नाश से उत्पन्न हुआ जीव का शुद्ध स्वरूप होने से प्राप्त होने के बाद किसी भी समय नष्ट नहीं होता है । इसी कारण क्षायिक सम्यक्त्व का काल सादि - अनन्त है ।
इस प्रकार से आदि के तीन गुणस्थानों और प्रसंगोपात्त औपशमिक, क्षायिक सम्यक्त्वों का काल बतलाने के बाद अब चौथे, पांचवेंअविरत सम्यग्दृष्टि और देशविरत गुणस्थानों का काल बतलाते हैं । अविरत और देशविरत गुणस्थान का काल
वेयग अविरयसम्मो तेत्तीसयराई साइरेगाइ । अंतमुत्ताओ पुव्वकोडी देसो उ देसूणा ॥४३॥
शब्दार्थ- वेग-वेदक, अविरयसम्मो - अविरत सम्यग्दृष्टि जीव, तेत्तीसयराइ -- तेतीस सागरोपम, साइरेगाई - कुछ अधिक, अंतमुहुत्ताओअन्तर्मुहूर्त से, पुथ्वकोडी – पूर्वकोटि, देसो-- देशविरत, उ- और, देसूणा - देशोन ।
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