Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : २ रह सकते हैं । जिससे प्रमत्त और अप्रमत्त भाव में देशोन पूर्वकोटि पर्यन्त परावर्तन करते रहते हैं । इसी कारण प्रमत्तभाव अथवा अप्रमत्तभाव ये प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त होते हैं, इससे अधिक काल तक नहीं हो सकते हैं । शतकबृहच्चूर्णि में भी यही बताया है
'इत्थ संकिलिस्सइ विसुज्झइ वा विरओ अंतमुहुत्त जाव कालं, न परओ । तेणं संकि लिस्संतो संकिले सठाणेसु अंतोमुहुत्त कालं जाव पमत्तसंजओ होइ, विसुज्झंतो विसोहिठाणेसु अंतोमुहुत्त कालं जाव अपमत्तसंजओ होइ ।'
इस प्रकार संक्लिष्ट परिणाम वाला या विशुद्ध परिणाम वाला मुनि अंतर्मुहूर्त काल पर्यन्त ही हो सकता है, अधिक काल नहीं होता है। जिससे संक्लिष्ट परिणाम वाला प्रमत्त मुनि संक्लेशस्थानों में अन्तमुहर्त पर्यन्त और विशुद्ध परिणाम वाला अप्रमत्त मुनि विशुद्धिस्थानों में अन्तमुहूर्त पर्यन्त रहता है।
प्रश्न-इस प्रकार से प्रमत्त और अप्रमत्तपने में कितने काल तक परावर्तन करते हैं ?
उत्तर-प्रमत्त और अप्रमत्तपने में देशोनपूर्वकोटि पर्यन्त परावर्तन करते हैं। प्रमत्त में अन्तमुहूर्त रहकर अप्रमत्त में और अप्रमत्त में अन्तमुहूर्त रहकर प्रमत्त में, इस तरह क्रमशः देशोन पूर्वकोटि पर्यन्त होता रहता है-'देसूण पुवकोडि अन्नोन्नं चिट्ठहि भयंता।'
यहाँ गर्भ के कुछ अधिक नौ मास और प्रसव होने के बाद आठ वर्ष पर्यन्त जीव स्वभाव मे विरति परिणाम वाला न होने से उतना काल पूर्वकोटि आयु में से कम कर देने के कारण यहाँ देशोन-एक देश कम पूर्वकोटि काल ग्रहण किया है।
इस प्रकार से छठे और सातवे-प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानों के काल का निर्देश करने से अभी तक आदि के सात गुणस्थानों के काल का विचार किया जा चुका है। अब एक जीव की अपेक्षा शेष गुणस्थानों के काल का निरूपण करते हैं।
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