Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४३
__ १०७ गाथार्थ-वेदक अविरत सम्यग्दृष्टि जीव अन्तमुहूर्त से लेकर कुछ अधिक तेतीस सागरोपम पर्यन्त और देशावरत देशोन
पूर्वकोटि पर्यन्त होता है। विशेषार्थ-गाथा में अविरत सम्यग्दृष्टि और देशविरत गुणस्थान का काल बतलाने के प्रसंग में पहले चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान के लिये बतलाया है कि 'वेयग अविरयसम्मो' अर्थात् क्षायोपशमिक सम्यक्त्वयुक्त अविरत सम्यग्दृष्टि जीव जघन्य से अन्तमुहूर्त पर्यन्त होता है और उसके बाद अन्तमुहर्त से लेकर उत्कृष्ट से कुछ अधिक तेतीस सागरोपम पर्यन्त होता है । जिससे चौथे गुणस्थान का उतना काल घटित होता है।
कुछ अधिक तेतीस सागरोपम पर्यन्त क्षायोपशमिक सम्यक्त्व युक्त अविरत सम्यग्दृष्टि होने का कारण यह है कि कोई प्रथम संहनन वाला जीव निरतिचार चारित्र का पालन करके उत्कृष्ट स्थिति वाले अनूत्तर विमान में उत्पन्न हो तो वहाँ उसका अविरत सम्यग्दृष्टिपने में तेतीस सागरोपम प्रमाण काल बीतता है। क्यांकि अनुत्तर विमानवासी देवों की उत्कृष्ट आयु तेतीस सागरोपम प्रमाण है। तत्पश्चात् वहाँ से च्यवकर मनुष्यभव में आकर जब तक सर्वविरति आदि को प्राप्त न करे तब तक अविरति में ही रहता है, जिससे ऐसे स्वरूप वाले वेदक किसी अविरत सम्यग्दृष्टि जीव के मनुष्यभव के कुछ वर्ष अधिक तेतीस सागरोपम का काल घटित होता है। ___ इस प्रकार चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान का काल जानना चाहिये । अब पांचवें देशविरत गुणस्थान का काल बतलाते हैं।
देशविरत जीव जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से देशोन पूर्वकोटि पर्यन्त होता है, जिससे पांचवें गुणस्थान का उतना काल है। जघन्य से अन्तमुहूर्त काल मानने का स्पष्टीकरण इस प्रकार है
कोई अविरत आदि जीव अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त देशविरत गुणस्थान में रहकर अविरत आदि को प्राप्त करे या प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों में जाये तो उसकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त काल घटित होता है। जघन्य
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