Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधक - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३६
शब्दार्थ - होइ - है, अणाइ- अनादि, अनंतो- अनन्त, अणाइसंतोअनादि-सांत, य - और, साइसंतो- सादि-सांत, य-और, देसूण - देशोन, कुछ कम, पोग्गल -- अर्ध पुद्गलपरावर्तन, अंतमुहुत्तं - अन्तर्मुहुर्त, चरिमअंतिम, मिच्छो- मिथ्यादृष्टि |
गाथार्थ - मिथ्यादृष्टिगुणस्थान का स्थितिकाल अनादि-अनन्त, अनादि-सांत और सादि-सांत, इस तरह तीन प्रकार का है । उनमें से अन्तिम (सादि-सांत काल वाला) मिध्यादृष्टि उत्कृष्ट से देशोन अर्ध पुद्गलपरावर्तन और जघन्य से अन्तर्मुहूर्त होता है । विशेषार्थ - गाथा में एक जीव की अपेक्षा मिथ्यात्वगुणस्थान के काल का विचार किया है । काल की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि तीन प्रकार के होते हैं - ( १ ) अनादि अनन्त, (२) अनादि-सांत और, (३) सादि - सांत । इनमें से अभव्य की अपेक्षा और जो कभी भी मोक्ष जाने वाले नहीं हैं ऐसे भव्यों की अपेक्षा अनादि-अनन्त स्थितिकाल है । इसका कारण यह है कि वे अनादिकाल से लेकर आगामी सम्पूर्ण काल पर्यन्त मिध्यादृष्टिगुणस्थान में ही रहने वाले हैं ।
जो भव्य अनादिकाल से मिथ्यादृष्टि हैं, परन्तु भविष्य में अवश्य सम्यक्त्व प्राप्त करेंगे, उन मिथ्यादृष्टियों की अपेक्षा अनादि- सान्त काल है ।
जो जीव तथाभव्यत्वभाव के परिपाक के वश सम्यक्त्व प्राप्त करके किसी कारण से गिरकर मिथ्यात्व का अनुभव करते हैं, परन्तु कालान्तर में अवश्य सम्यक्त्व प्राप्त करेंगे, ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवों की अपेक्षा सादि-सांत काल घटित होता है । क्योंकि ऐसी आत्माओं ने सम्यक्त्व प्राप्त करने के बाद गिरकर मिथ्यात्वगुणस्थान प्राप्त किया है, इसलिये सादि तथा कालान्तर में अवश्य सम्यक्त्व प्राप्त करेंगी, तब मिथ्यादृष्टिगुणस्थान का अन्त होगा, इसलिये सांत ।
सादि-सांत काल वाला यह मिथ्यादृष्टि जघन्य से अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त होता है । क्योंकि सम्यक्त्व से गिरकर मिध्यात्व में आकर पुनः
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