Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह और सूक्ष्मसंपराय तथा अयोगिकेवली गुणस्थानों में जब जीव होते हैं, तब जघन्य से एक, दो और उत्कृष्ट से एक सौ आठ हो सकते हैं। यह कथन प्रवेश करने वालों की अपेक्षा जानना चाहिये कि अधिक-सेअधिक एक समय में एक साथ इतने जीव क्षपकश्रेणि में, क्षीणमोहगुणस्थान में और अयोगिकेवलीगुणस्थान में प्रवेश करते हैं। क्षपकश्रेणि और क्षीणमोह गुणस्थान का काल अन्तमुहूर्त प्रमाण और अयोगिकेवलीगुणस्थान का काल पांच ह्रस्वाक्षर जितना है। इस क्षपकश्रेणि के सम्पूर्णकाल में और अयोगिकेवलीगुणस्थान के काल में अन्य-अन्य जीव प्रवेश करें तो वे सब मिलकर शतपृथक्त्व ही होते हैं ।
तात्पर्य यह है कि अन्तर्मुहूर्तप्रमाण क्षपकश्रेणि के समस्त काल में पन्द्रह कर्मभूमि में अन्य-अन्य जीव प्रवेश करें तो शतपृथक्त्व' जीव ही प्रवेश करते हैं, अधिक प्रवेश नहीं करते हैं। अयोगिकेवली की अपेक्षा भी यही समझना चाहिये।
सयोगिकेवलीगुणस्थानवर्ती जीव कोटिपृथक्त्व होते हैं। सयोगिकेवली सदैव होते हैं। क्योंकि यह नित्य गुणस्थान है। इस गुणस्थान में जघन्य से भी कोटिपथक्त्व और उत्कृष्ट से भी कोटिपृथक्त्व जीव होते हैं, परन्तु जघन्य से उत्कृष्ट कोटिपृथक्त्व बड़ा जानना चाहिये ।'
इस प्रकार से जीवस्थानों और गुणस्थानों की अपेक्षा द्रव्यप्रमाण बतलाने के बाद अब क्रमप्राप्त क्षेत्रप्रमाण का वर्णन करते हैं। यहाँ भी पूर्व कथनप्रणाली के अनुसार पहले जीवस्थानों के क्षेत्र का प्रतिपादन करते हैं। जीवस्थानों को क्षेत्रप्ररूपणा
अपज्जत्ता दोनिवि सुहुमा एगिदिया जए सव्वे । सेसा य असंखेज्जा बायरपवणा असंखेसु ॥२५॥
१ यहाँ भी शतपृथक्त्व अधिक-से-अधिक नौ सौ सम्भव हैं। . २ यहाँ भी जघन्य और उत्कृष्ट कोटिपृथक्त्व में जघन्य संख्या दो करोड़ और उत्कृष्ट संख्या नौ करोड़ समझना चाहिये ।
-सम्पादक
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