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बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २६ स्थानवी जीवों को स्पर्शना का विचार किया गया है। जीवभेदों की अपेक्षा स्पर्शना का विचार इस प्रकार है कि - ___'चउदसविहावि जीवा' अर्थात् अपर्याप्त, पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि चौदह प्रकार के जीव 'समुग्घाएणं'-मारणान्तिकसमुद्घात द्वारा सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करते हैं—'फुसंति सव्वजगं'।
लेकिन सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा इतना विशेष है कि पर्याप्त और अपर्याप्त ये दोनों प्रकार के सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव सम्पूर्ण लोक में रहे हुए हैं। जिससे वे स्वस्थान की अपेक्षा भी सम्पूर्ण लोक को स्पर्श करते हुए उत्पन्न होते हैं। स्वस्थान की अपेक्षा यानि सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव सूक्ष्म एकेन्द्रिय के रूप में उत्पन्न हों तो उनके सम्पूर्ण लोकवर्ती होने से समुद्घात के बिना भी वे सम्पूर्ण जगत का स्पर्श करते हुए उत्पन्न होते हैं । जब स्वस्थान को अपेक्षा सर्व जगत का स्पर्श करते हुए उत्पन्न होते हैं तो फिर मारणान्तिकसमुद्घात द्वारा सर्वजगत का स्पर्श करते हुए क्यों उत्पन्न नहीं होंगे ? अर्थात् उत्पन्न होंगे ही। क्योंकि कितने ही जीव अधोलोक से ऊर्ध्वलोक में उत्पन्न होते हैं, उनके चौदह राजू की स्पर्शना सम्भव है।
सूक्ष्म एकेन्द्रिय के अलावा बादर अपर्याप्त एकेन्द्रियादि सभी जीव स्वस्थानापेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में ही रहे हुए हैं, जिससे वे स्वस्थानापेक्षा तो सर्व लोक का स्पर्श नहीं करते हैं, परन्तु समुद्घात द्वारा समस्त लोक का स्पर्श करते हैं। वह इस प्रकार जानना चाहिये कि
मारणान्तिकसमुद्घात करती हुई आत्मा मोटाई और चौड़ाई में अपने शरीर प्रमाण और लम्बाई में जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट से असंख्याता योजनप्रमाण अपने प्रदेशों को दण्डाकाररूप में परिणत करती है और परिणत करके आगामी भव में जिस स्थान पर उत्पन्न होगी, उस स्थान में अपने दण्ड का प्रक्षेप करती है। यदि वह उत्पत्तिस्थान समणि में हो तो मारणान्तिक
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