Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३४
८५
काल-प्ररूपणा
काल तीन प्रकार का है-(१) भवस्थितिकाल, (२) काय स्थितिकाल और (३) प्रत्येक गुणस्थानाश्रितकाल । उनमें से भवस्थिति का काल यानि एक भव की आयु । कायस्थितिकाल यानि पृथ्वीकायादि में से मरण करके बारम्बार वहीं उत्पन्न होने का काल । जैसे कि पृथ्वीकाय का जीव मरण प्राप्त कर पृथ्वीकाय हो, पुनः पुनः मरण प्राप्त कर पृथ्वोकाय में जन्म लेना, इस तरह एक के बाद एक के क्रम से जितने काल पृश्वीकाय हो, वह काल कायस्थितिकाल कहलाता है। प्रत्येक गुणस्थान एक-एक आत्मा में जितने काल तक रहता है, उसका जो निश्चित समय वह गुणस्थानाश्रितकाल कहलाता है। इनमें से पहले जीवभेदों की भवस्थिति बतलाते हैं। भवस्थिति
सत्तहमपज्जाणं अंतमुहत्तं दुहावि सुहमाणं ।
सेसाणंपि जहन्ना भवठिई होइ एमेव ॥३४॥ शब्दार्थ-सत्तण्हं-सात, अपज्जाणं-अपर्याप्तों की, अंतमुहुत्तंअन्तर्मुहूर्त, दुहावि-दोनों ही प्रकार की, सुहमाणं-सूक्ष्म जीवों की, सेसाणंपि-शेष जीवों की भी, जहन्ना---जघन्य, भवठिई-भवस्थिति, होइहोती है, एमेव-इसी प्रकार ।
गाथार्थ-सातों अपर्याप्तक और सूक्ष्म पर्याप्तक की दोनों ही प्रकार की आयु अन्तमुहर्त तथा शेष जीवों की भी जघन्य भवस्थिति इसी प्रकार है।
विशेषार्थ-गाथा में मुख्यरूप से चौदह जीवभेदों की जघन्य भवस्थिति को बतलाया है कि
'सत्तण्हमपज्जाणं' अर्थात् सूक्ष्म बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी, संज्ञी पंचेन्द्रिय रूप सातों लब्धि-अपर्याप्तक जीवों की तथा सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकों की जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकार की एक भवसम्बन्धी आयु का प्रमाण अन्तमुहूर्त है। वे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org