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बंधक - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३१-३३
करके पूर्व स्थान के साथ सम्बन्ध रखे बिना उत्पत्तिस्थान में चला जाता है । कंदुकगति करने वाली आत्मा के अपनी आयु के चरम समय पर्यन्त मनुष्यभव और परभवायु के प्रथम समय में देवभव का सम्बन्ध होता है, जिससे कंदुकगति करने वाले की अपेक्षा प्रमत्तादि गुणस्थान वालों के सात राजू की स्पर्शना नहीं घटती है ।
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दूसरी इल्ली की तरह जो गति है, उसे इल्लिकागति कहते हैं । जैसे इल्ली की पूँछ यानि पीछे का भाग जिस स्थान पर होता है, उस स्थान को नहीं छोड़ते हुए मुख यानि अग्रभाग द्वारा आगे के स्थान को अपना शरीर बढ़ा कर स्पर्श करती है और उसके बाद पिछला भाग सिकोड़ती है । इसका अर्थ यह हुआ कि जैसे इल्ली पिछले भाग द्वारा पूर्वस्थान का सम्बन्ध छोड़े बिना अगले स्थान से सम्बन्ध करती है और अगले भाग के साथ सम्बन्ध करने के बाद पिछले स्थान का सम्बन्ध छोड़ती है, उसी प्रकार कोई जीव अपने भव के अन्तकाल में अपने प्रदेशों से ऋजुगति द्वारा उत्पत्तिस्थान का स्पर्श करके परभवायु के प्रथम समय में पूर्व के शरीर का त्याग करता है । इस तरह अपने भव के अन्त समय में कि जिस समय प्रमत्तादि भाव होते हैं - अपने आत्मप्रदेशों द्वारा सर्वार्थसिद्ध महाविमानरूप अपने उत्पत्तिस्थान को स्पर्श करने वाला होने से इल्लिकागति की अपेक्षा प्रमत्त एवं उपशमकादि के सात राजू की स्पर्शना में कोई विरोध नहीं है ।
इस तरह ऋजुगति द्वारा जाते हुए प्रमत्तादि के सात राजू की स्पर्शना सम्भव है, किन्तु वक्रगति से जाते हुए संभव नहीं है । क्योंकि ऋजुगति से जाते हुए अपनी आयु के अन्तिम समय में अपने प्रदेशों के द्वारा उत्पत्तिस्थान का स्पर्श करता है । जिससे उस अन्तिम समय में प्रमत्तादि गुणस्थान और सात राजू की स्पर्शना, ये दोनों सम्भव हैं ।
वक्रगति से जाने पर दूसरे समय में उत्पत्तिस्थान का स्पर्श करता है कि जिस समय परभव की आयु का उदय होता है । पहले समय मध्य में रहता है, जो पूर्व भवायु का अंतिम समय है । इस प्रकार
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