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बधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २७-२८
समुद्घात होते हैं और वैक्रियलब्धिसम्पन्न वायुकायिक जीवों के आदि के चार समुद्घात होते हैं । विशेषार्थ-इन दो गाथाओं में समुद्घात के भेद और उनके स्वामियों को बतलाया है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है___ सम्, उत् और घात इन तीन शब्दों के संयोग से समुद्घात पद बना है। सम् का अर्थ है तन्मय होना, उत्' यानि प्रबलता से, बहुत से, घात अर्थात् क्षय होना । इसका तात्पर्य यह हुआ कि तन्मय होने के द्वारा कालान्तर में भोगनेयोग्य बहुत से कर्माशों का जिसके द्वारा क्षय होता है, वह समुद्घात है। यदि कहो कि तन्मयता किसके साथ होती है ? तो इसका उत्तर है कि वेदनादि के साथ । अर्थात जब आत्मा वेदना आदि समुद्घात को प्राप्त हुई होती है तब वेदना आदि का अनुभव ज्ञान में परिणत होता है, यानि उसी के उपयोग वाली होती है, अन्य ज्ञानरूप परिणत नहीं होती है और उस समय प्रबलता से कर्मक्षय इस प्रकार करती है कि वेदनादि के अनुभवज्ञान में परिणत आत्मा कालान्तर में अनुभव करनेयोग्य बहुत से वेदनीय आदि के कर्मप्रदेशों को उदीरणाकरण के द्वारा आकर्षित कर उदयावलिका में प्रविष्ट कर क्षय करती है, आत्मप्रदेशों के साथ एकाकार हुए कर्माणुओं का नाश करती है। इस प्रकार से समुद्घात का स्वरूप जानना चाहिये।
अब समुद्घात के भेद और उनकी लाक्षणिक व्याख्या करते हैं
समुद्घात के सात भेद हैं-वेदना, कषाय, मारणान्तिक, वक्रिय, तेजस, आहारक और केवली। इन वेदना आदि शब्दों के साथ उत्तरवर्ती गाथा में प्रयुक्त समुद्घात शब्द को जोड़कर इस प्रकार इनका पूरा नाम कहना चाहिये-वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात आदि ।
वेदनासमुद्घात–वेदना द्वारा जो समुद्घात होता है उसे वेदनासमुद्घात कहते हैं। वह असातावेदनीयकर्मजन्य है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि जब आत्मा वेदनासमुद्घात को प्राप्त होती है तब
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