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पंचसंग्रह
तो इसका उत्तर यह है कि प्रज्ञापनासूत्र में सूक्ष्म अपर्याप्तकों की अपेक्षा पर्याप्तकों को संख्यातगुणा कहा है । तत्सम्बन्धी पाठ इस प्रकार है
'सवथोवा सुहमा अपज्जत्ता, पज्जत्ता संखेयगुण त्ति ।' अर्थात्-सूक्ष्म अपर्याप्त अल्प हैं और पर्याप्त संख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार अन्यत्र भी कहा है कि
जीवाणमपज्जत्ता बहुतरगा बायराण विन्नेया ।
सुहमाण उ पज्जत्ता, ओहेण उ केवली बिति ॥ । अर्थात्-बादर जीवों में अपर्याप्त अधिक और सक्ष्म जीवों में पर्याप्त अधिक जानना चाहिये, ऐसा सामान्य से केवली भगवान् ने कहा है।
इस प्रकार सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों के क्षेत्र का विचार करने के बाद अब शेष रहे बादर एकेन्द्रिय पृथ्वी आदि तथा द्वीन्द्रिय आदि जीवों के क्षेत्र का प्रमाण बतलाते हैं कि पर्याप्त-अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय पथ्वी, अप, तेज और वनस्पति तथा द्वीन्द्रिय आदि सभी जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं - 'सेसा य असंखेज्जा' तथा पर्याप्तअपर्याप्त बादर वायुकाय के जीव लोक के असंख्याता भागों में रहते हैं। क्योंकि लोक का जो कुछ भो पोला भाग है, उस सभी भाग में वायु रहती है। मेरु पर्वत के मध्य भाग आदि या उस सरीखे दूसरे अति निविड़ और निचित-सुघटित अवयव वाले क्षेत्रों में बादर वायुकाय के जीव नहीं होते हैं। क्योंकि वहाँ पोलापन नहीं होता है। ऐसा निचित भाग सम्पूर्ण लोक का असंख्यातवां भाग ही है, इसलिये एक असंख्यातवां भाग छोड़कर शेष समस्त असंख्याता भागों में बादर वायुकाय के जीव रहते हैं।
इस प्रकार से जीवभेदों के क्षेत्र को बतलाने के बाद अब गुणस्थानों की अपेक्षा क्षेत्रप्रमाण को बतलाते हैं।
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