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बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २५
शब्दार्थ-अपज्जत्ता-अपर्याप्त, दोन्नि - दोनों, वि-भी, सुहुमा-सूक्ष्म, एगिदिया---एकेन्द्रिय, जए ---जगत--लोक में, सम्वे-समस्त, सेसा-शेष, यऔर, असंखेज्जा-असंख्यातवें, बायर-बादर, पवणा-वायुकाय के जीव, असंखेसु ---असंख्यातवें भाग में । ___ गाथार्थ-दोनों प्रकार के अपर्याप्त और पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव समस्त लोक में हैं और शेष जीव लोक के असंख्यातवें भाग में हैं तथा बादर वायुकाय के जोव लोक के असंख्यातवें भाग में रहे हुए हैं। विशेषार्थ-क्षेत्रप्रमाण प्ररूपणा प्रारम्भ करते हुए गाथा में जीवभेदों के क्षेत्र का प्रमाण बताया है कि दोनों प्रकार के अपर्याप्त अर्थात् लब्धि-अपर्याप्त और करण-अपर्याप्त तथा गाथोक्त 'वि-अपि' शब्द अनुक्त का समुच्चायक होने से पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति-ये प्रत्येक प्रकार के जीव समस्त लोकाकाशव्यापी हैं-समस्त लोकाकाश में रहे हुए हैं।
प्रश्न -पर्याप्तादि समस्त भेद वाले पृथ्वीकायादि सभी सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव सम्पूर्ण लोकव्यापी हैं, ऐसा कहने से ही जब सभी भेद वाले सूक्ष्म जीव सम्पूर्ण लोक में हैं, यह इष्ट अर्थ सिद्ध हो जाता है, तब पुनः मुख्य रूप से अपर्याप्त का ग्रहण और 'अपि' शब्द से पर्याप्त का ग्रहण किसलिये किया है ?
उत्तर-यद्यपि सूक्ष्म जीवों में पर्याप्त की अपेक्षा अपर्याप्त अल हैं, तथापि स्वरूपतः अपर्याप्त जीवों का बाहुल्य बताने के लिये मुख्य रूप से अपर्याप्त का ग्रहण किया है। वह इस प्रकार कि यद्यपि पर्याप्त से अपर्याप्त संख्यातगुणहीन हैं, फिर भी वे समस्त लोक में रहते हैं, इस कथन द्वारा यह स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है कि अवश्य ही वे अधिक हैं। ___कदाचित् यह शंका हो कि पर्याप्त की अपेक्षा अपर्याप्त सूक्ष्म संख्यातगुणहीन कैसे हो सकते हैं, अपर्याप्त तो अधिक होने चाहिये ?
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