Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह
तीसरे वर्गमूल द्वारा गुणित, अंगुलमूलप्पएसेहि-अंगुलप्रमाण क्षेत्र के प्रदेशों के पहले मूल के प्रदेशों से ।
गाथार्थ- उत्कृष्ट पद में मनुष्य तीसरे वर्गमूल द्वारा गुणित अंगुलप्रमाण क्षेत्र में विद्यमान प्रदेशों के पहले मूल के प्रदेशों से एक रूप अधिक हों तो सम्पूर्ण सूचिश्रेणि का अपहार हो सकता है।
विशेषार्थ-यहाँ उत्कृष्टपद में मनुष्यों का प्रमाण बतलाया है । मनुष्य दो प्रकार के हैं—१ गर्भज, २ संमूच्छिम । अन्तमुहूर्त की आयु वाले संमूच्छिम तो अपर्याप्त-अवस्था में ही मरण को प्राप्त होते हैं तथा पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से गर्भज दो प्रकार के हैं। गर्भज पर्याप्त मनुष्य, ध्रुव होने से सदैव होते हैं एवं वे संख्यात ही हैं । उनकी जघन्य संख्या भी पांचवें और छठे वर्ग का गुणाकार करने पर प्राप्त राशिप्रमाण हैं।
प्रश्न- वर्ग किसे कहते हैं ? पांचवें और छठे वर्ग का स्वरूप क्या है और पांचवें और छठे वर्ग का गुणाकार करने पर प्राप्त संख्या कितनी होती है ?
उत्तर-किसी एक विवक्षित राशि का विवक्षित राशि के साथ गुणा करने पर प्राप्त प्रमाण को वर्ग कहते हैं। एक का एक से गुणा करने पर भी वृद्धिरहित होने से उसे वर्ग में नहीं गिना जाता है । वर्ग का प्रारम्भ दो की संख्या से होता है। इसलिये दो को दो से गुणा करने पर दो का वर्ग चार होता है, यह पहला वर्ग है। चार का वर्ग ४४४ = १६ (सोलह),. यह दूसरा वर्ग, सोलह का वर्ग १६४१६ = २५६ (दो सौ छप्पन), यह तीसरा वर्ग, दो सौ छप्पन का वर्ग २५६४ २५६ = ६५५३६ (पैंसठ हजार पांच सौ छत्तीस), यह चौथा वर्ग, पैसठ हजार पांच सौ छत्तीस का वर्ग ६५५३६४६५५३६%3D ४२६४६६७२६६ (चार अरब उनतीस करोड़ उनचास लाख, सड़सठ हजार दो सौ छियानवै) यह पांचवाँ वर्ग और इस पांचवें वर्ग की
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