Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह
इसी प्रकार अन्य अधोवर्ती नरकपृथ्वियों के लिये भी समझना
चाहिये |
गाथा के अन्त में विद्यमान 'य-च' शब्द अनुक्त अर्थ का सूचक होने से यह जानना चाहिये कि पहली रत्नप्रभापृथ्वी के नारकों की जो सात राजू प्रमाण घनीकृत लोक की एक प्रादेशिकी असंख्यातो सूचिश्रेणि प्रमाण संख्या कही गई है, उतनी ही संख्या भवनपति देवों की भी है । इस प्रकार से नारकों और भवनपति देवों की संख्या बतलाने के बाद अब व्यंतर देवों का प्रमाण बतलाते हैं ।
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व्यंतर देवों का प्रमाण
संखेज्जजोयणाणं सूइपएसेहि भाइओ पयरो । वंतरसुरेहि हीरइ एवं एकेक्कभेए णं ॥ १४ ॥
शब्दार्थ — संखेज्ज – संख्याता, जोयणाणं—योजनप्रमाण, सूइपएसेहिसुचिप्रदेशों के द्वारा, भाइओ-भाजित, पयरो—– प्रतर, वंतरसुरेहि- व्यंतर देवों के द्वारा, हीरई - अपहृत किया जाता है, एवं- - इस प्रकार, एकेक्कभेएणंप्रत्येक व्यंतरनिकाय के लिये ।
गाथार्थ - संख्याता योजनप्रमाण सूचिश्रेणि के आकाशप्रदेश द्वारा भाजित प्रतर व्यंतर देवों द्वारा अपहृत किया जाता है । इसी प्रकार प्रत्येक व्यंतरनिकाय के लिये समझना चाहिये ।
विशेषार्थ - गाथा में व्यंतर देवों की संख्या बतलाने के लिये कहा है कि संख्याता योजनप्रमाण सूचिश्रेणि में रहे हुए आकाशप्रदेशों द्वारा एक प्रतर के आकाशप्रदेशों को भाजित करने पर जो प्रमाण आता है, उतने व्यंतर देव हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि संख्याता योजनप्रमाण सूचिश्रेणि जैसे एक प्रतर के जितने खण्ड होते हैं, उतने व्यंतर देव हैं । अथवा दूसरे प्रकार से ऐसा भी कहा जा सकता है कि संख्याता योजनप्रमाण सूचिश्रेणि जैसे प्रतर के एक-एक खण्ड को प्रत्येक व्यंतर एक साथ ग्रहण करे तो वे समस्त व्यंतर देव एक ही समय में उस सम्पूर्ण प्रतर को ग्रहण कर सकते हैं ।
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